अतीत, वर्तमान और भविष्य के मध्य नूतन वर्ष
New Year between past, present and future
Wed, 31 Dec 2025
डॉ. सुधाकर आशावादी
(विनायक फीचर्स)
समय-चक्र का गठबंधन प्रगाढ़ हुआ जाता है,
अबाध गति से पेंग बढ़ाता नूतन वर्ष आता है।
आओ विचारें अतीत में क्या खोया, क्या पाया,
यथार्थमयी चिंतन हेतु ही नूतन वर्ष है आया।
आओ रचे नवगीत, बुनें नित श्रृंगारिक सपने,
आज संजोएं मृदु भाव-सुमन जीवन में अपने।

निस्संदेह, गतिशील जीवन में एक समय ऐसा अवश्य आता है जब व्यक्ति अपने जीवन की उपलब्धियों का आकलन करता है और यह सोचता है कि अतीत, वर्तमान और भविष्य के मध्य वह स्वयं कहाँ खड़ा है।
ज़िंदगी में धड़कनों की महत्ता को समझते हुए सदा मधुर वाणी अपनानी चाहिए। कड़वी बातों में जीने का आखिर लाभ ही क्या है? प्रवचन सुनने में अच्छे लगते हैं, लेकिन क्या आज के दौर में उनका पालन संभव हो पा रहा है—यह एक बड़ा प्रश्न है। सर्वविदित है कि समय गति और परिवर्तन का परिचायक है। जिसने भी घड़ी का आविष्कार किया होगा, उसका उद्देश्य यही रहा होगा कि मनुष्य समय के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके।
सेकेंड से मिनट, मिनट से घंटे और फिर दिन, सप्ताह, महीने व वर्ष का यह सफर कब नए वर्ष में प्रवेश कर जाता है और कब बीता वर्ष अतीत बन जाता है—इसका आभास प्रायः संपन्न व्यक्ति को नहीं होता। किंतु जिसके जीवन में अभाव हैं, जिसे भोर होते ही पेट भरने की चिंता सताने लगती है, उसे समय का वास्तविक मूल्य भली-भांति ज्ञात होता है। वह स्वयं को बार-बार दिलासा देता है—सब्र कर, अपने भी अच्छे दिन आएंगे।
एक समय था जब ‘हैप्पी न्यू ईयर’ का विशेष आकर्षण हुआ करता था। विदेशों में नए साल के जश्न, आतिशबाज़ी और उल्लास के दृश्य मन मोह लेते थे। तब हर हाथ में मोबाइल नहीं होता था। चिट्ठी-पत्री का दौर था। बाज़ारों में ग्रीटिंग कार्ड की दुकानों की रौनक देखते ही बनती थी। डाकिया घर-घर उम्मीदों का संदेश लेकर आता था। आज नया वर्ष आता तो है, पर वह नया होने का अहसास कम ही करा पाता है। भोर का सूरज हर रोज़ की तरह उगता है और ज़िंदगी फिर पुराने ढर्रे पर चल पड़ती है।
मनुष्य निरंतर नयापन खोजता रहता है। ‘बीती ताहि बिसारि’ की बात करना आसान है, किंतु भविष्य तभी उज्ज्वल हो सकता है जब अतीत के दायित्व पूरे किए गए हों। अक्सर यह बात कहने तक ही सीमित रह जाती है—
छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी,
नए दौर में लिखेंगे मिलकर नई कहानी।
हम हिंदुस्तानी हैं, पर क्या वास्तव में हम संकीर्णताओं को छोड़ने के लिए तैयार हैं? नया साल हर वर्ष आता है, यह कोई बारह वर्षों में लगने वाला कुंभ नहीं।
प्रश्न यह है कि क्या हम रंगभेद, जातिभेद और धर्मांधता से ऊपर उठकर मानवता के सुर में सुर मिलाने को तत्पर हैं? इक्कीसवीं सदी अपनी शतकीय पारी के छब्बीसवें पायदान पर है, किंतु सोच आज भी पिछड़ेपन में उलझी है। मनुष्य अपनी थाली से अधिक दूसरों की थाली पर नज़र गड़ाए है। गरीबों, दलितों और वंचितों के नाम पर राजनीति करने वाले अपनी समृद्धि के महल खड़े करने में लगे हैं। मुफ्त घर और मुफ्त रोटी के सपने दिखाने वाले मदारी डुगडुगी बजा रहे हैं।
बीता वर्ष समाज को अनेक जघन्य अपराधों की सौगात देकर गया। रिश्तों में विश्वास का कत्ल हुआ। कहीं नीले ड्रम में इंसानियत दम तोड़ती मिली, तो कहीं हत्या को हादसे का रूप देने की कोशिश हुई। निस्संदेह, बीता वर्ष सामाजिक पतन का साक्षी बना।
नववर्ष 2026 हमारे सामने है। कामना यही है कि यह नया वर्ष सामाजिक कुरीतियों को दूर करने, संवेदनशीलता और मानवीय मूल्यों को पुनर्स्थापित करने में सार्थक भूमिका निभाए।
