बच्चों की जिंदगी से खिलवाड़: जब जीवनरक्षक दवाएं बन गईं मौत का ज़रिया

(मनोज कुमार अग्रवाल – विभूति फीचर्स)
देश में भ्रष्टाचार, मिलावटखोरी और मुनाफाखोरी का जाल इस हद तक फैल चुका है कि अब यह सीधे जीवन से खिलवाड़ करने लगा है। इसका ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश और राजस्थान में सामने आया, जहां खांसी की दवा पीने से 18 मासूम बच्चों की मौत हो गई। यह घटना उस भयावह सच्चाई को उजागर करती है कि दवाओं के कारोबार में फैला भ्रष्ट सिंडिकेट सरकारी तंत्र के संरक्षण में आमजन की जान के साथ व्यापार कर रहा है। जांच के नाम पर लीपापोती का सिलसिला जारी है और जिम्मेदार अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से बचने का खेल खेल रहे हैं।
खांसी की दवा बनी काल का कारण
‘कोल्डरिफ’ नामक कफ सीरप पीने के बाद कई बच्चों की मौत होने के बाद इसे प्रतिबंधित कर दिया गया है। इस दवा को लिखने वाले डॉक्टर को गिरफ्तार किया गया और निर्माता कंपनी के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ। यह सीरप तमिलनाडु की श्री सन फार्मास्यूटिकल्स द्वारा बनाया गया था। मध्यप्रदेश और राजस्थान में घटनाओं के बाद तमिलनाडु, केरल, उत्तर प्रदेश, झारखंड सहित अन्य राज्यों ने भी इसकी बिक्री रोक दी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, वर्ष 2022 में भी तीन देशों में इसी तरह के कफ सीरप के सेवन से लगभग 300 बच्चों की मृत्यु हुई थी। इससे पहले भी मध्यप्रदेश सरकार ने ‘नेक्स्ट्रो जीएस’ और ‘कोल्डरिफ’ सीरप पर रोक लगाई थी। दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों को कफ सीरप न देने का निर्देश केंद्र सरकार ने जारी किया है।
जहर में बदलती दवा और लापरवाह कंपनियां
बच्चों की बायोप्सी रिपोर्ट में यह पाया गया कि सीरप में डायएथिलीन ग्लायकॉल मिला हुआ था—एक ऐसा रासायनिक पदार्थ जो कार इंजन के कूलेंट और पेंट्स में उपयोग किया जाता है। यही ज़हर बच्चों की किडनी फेल होने और मौत का कारण बना। छिंदवाड़ा में बीस दिनों में नौ बच्चों की मौत और भरतपुर में भी इसी सीरप से हुई मौतों ने पूरे देश को झकझोर दिया।
यह त्रासदी केवल निर्माता कंपनियों की लापरवाही नहीं बल्कि सरकारी निगरानी प्रणाली की विफलता को भी उजागर करती है। बताया गया कि बच्चों को मुख्यमंत्री की मुफ्त दवा योजना के तहत सरकारी अस्पतालों से यह जेनेरिक कफ सीरप दिया गया था। जांच से यह साफ है कि निगरानी और गुणवत्ता नियंत्रण का ढांचा बेहद कमजोर है।
भारत की फार्मा इंडस्ट्री की गिरती साख
हिमाचल प्रदेश, जो फार्मा हब के रूप में जाना जाता है, वहां की 655 दवा निर्माण इकाइयों में से केवल 122 ही गुणवत्ता मानकों पर खरी उतरीं। यह आंकड़ा नियामक तंत्र की विफलता का प्रमाण है। बार-बार समयसीमा बढ़ाने के बावजूद अधिकांश कंपनियां सुरक्षा मानकों को लागू नहीं कर पाई हैं।
यह केवल जनस्वास्थ्य के प्रति गैर-जिम्मेदारी नहीं, बल्कि एक आपराधिक लापरवाही है। जिन परिवारों ने अपने बच्चों को खो दिया, उनके लिए कोई भी मुआवजा पर्याप्त नहीं हो सकता। जिम्मेदार अधिकारियों और दवा निर्माताओं को कठोरतम दंड मिलना ही न्याय का पहला कदम होगा।
इतिहास से नहीं ली सीख
यह पहली बार नहीं है जब जहरीली दवाओं ने बच्चों की जान ली हो। 2020 में भी ऐसी ही त्रासदी हुई थी, लेकिन कुछ दिनों की हलचल के बाद मामला ठंडे बस्ते में चला गया। भारत की ‘विश्व की फार्मेसी’ के रूप में प्रतिष्ठा तब भी धूमिल हुई जब गाम्बिया और उज्बेकिस्तान में भारतीय दवाओं से बच्चों की मौत हुई थी।
देशभर में छापेमारी और जांच
मध्यप्रदेश और राजस्थान की घटनाओं के बाद केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) ने छह राज्यों—हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र—में जांच शुरू की है। 19 दवाओं के सैंपल लिए गए, जिनमें कफ सिरप, एंटीबायोटिक और बुखार की दवाएं शामिल हैं। तमिलनाडु के कांचीपुरम स्थित यूनिट से लिए गए नमूनों में रासायनिक तत्व की मात्रा अनुमेय सीमा से अधिक पाई गई, जिसके बाद उत्पादन और बिक्री पर रोक लगा दी गई।
हिमाचल के नालागढ़ में भी कफ सिरप उत्पादन रोकने और पांच यूनिट्स की अनुमति रद्द करने की कार्रवाई हुई।
पुराने विवाद और ब्लैकलिस्टेड कंपनियां
हरियाणा की मेडेन फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड, जिस पर गाम्बिया में 66 बच्चों की मौत का आरोप है, लंबे समय से विवादों में रही है। वियतनाम ने इसे मानकों के उल्लंघन में ब्लैकलिस्ट किया था। गुजरात, केरल, बिहार, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में भी इस कंपनी के खिलाफ कार्रवाई हो चुकी है।
सरकारी मिलीभगत और जवाबदेही की मांग
इन घटनाओं के लिए केवल निर्माता कंपनियां नहीं, बल्कि वे सरकारी अधिकारी भी जिम्मेदार हैं जो रिश्वत लेकर गैर-मानक दवाओं को मंजूरी देते हैं। ये सफेदपोश हत्यारे हैं जिन पर सख्त कार्रवाई अनिवार्य है। जांच का नाटक या मुआवजा देकर सरकार अपनी जवाबदेही से नहीं बच सकती।
सच्चाई यह है कि जब तक दवा निर्माण में पारदर्शिता, कठोर दंड और सशक्त निगरानी प्रणाली लागू नहीं की जाती, तब तक “जीवनरक्षक दवा” और “मौत का डोज़” के बीच की रेखा धुंधली ही बनी रहेगी।
