बिहार में मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण पर सियासी घमासान, सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) की प्रक्रिया ने राजनीतिक हलचल तेज कर दी है। जहां एक ओर चुनाव आयोग इसे नियमित और संवैधानिक कार्यवाही बता रहा है, वहीं विपक्षी दल इसे लोकतंत्र पर हमला और वंचित वर्गों के मताधिकार को खत्म करने की साजिश करार दे रहे हैं। इस विवाद ने अब दिल्ली से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक दस्तक दे दी है, जहां 10 जुलाई 2025 को इसकी सुनवाई निर्धारित है।
विपक्ष का आरोप: यह 'वोटबंदी' है
कांग्रेस, राजद, समाजवादी पार्टी, सीपीआई-एमएल सहित INDIA गठबंधन के 11 दलों के प्रतिनिधिमंडल ने 2 जुलाई को दिल्ली स्थित निर्वाचन सदन पहुंचकर चुनाव आयोग से औपचारिक आपत्ति दर्ज की। प्रतिनिधिमंडल में अभिषेक मनु सिंघवी, मनोज झा और दीपांकर भट्टाचार्य जैसे नेता शामिल थे।
विपक्ष का कहना है कि इस प्रक्रिया की समयसीमा अव्यवहारिक है और यह खासतौर पर गरीब, दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों को मतदाता सूची से बाहर करने का हथकंडा है।राजद नेता तेजस्वी यादव ने सवाल उठाया,"जब 2003 में पूरे देश में पुनरीक्षण हो चुका है, तो अब सिर्फ बिहार को क्यों निशाना बनाया गया?"उन्होंने यह भी कहा कि प्रक्रिया मानसून के दौरान शुरू की गई है, जब बाढ़ और अन्य व्यवधान आम हैं। इससे वंचित वर्गों को दस्तावेज़ जमा करने में परेशानी होगी।
दस्तावेज़ों को लेकर चिंता
मतदाता सत्यापन के लिए पासपोर्ट, जन्म प्रमाणपत्र, माता-पिता की नागरिकता प्रमाण जैसे 11 दस्तावेज़ मांगे जा रहे हैं। विपक्ष का दावा है कि 60% से अधिक मतदाताओं के पास ये दस्तावेज उपलब्ध नहीं हैं, खासकर ग्रामीण इलाकों में।एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने इस प्रक्रिया को "अव्यवस्थित और अवैज्ञानिक" बताया, जबकि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे बीजेपी-आरएसएस की साजिश बताया।योगेंद्र यादव ने अनुमान लगाया कि इस प्रक्रिया से लगभग 4.76 करोड़ मतदाताओं के नाम हटाए जा सकते हैं, जिसे उन्होंने "वोट उड़ाने का खेल" करार दिया।
सुप्रीम कोर्ट पहुंचा मामला
सपा सांसद कपिल सिब्बल, टीएमसी की महुआ मोइत्रा, राजद के मनोज झा, और कई संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इतनी बड़ी जनसंख्या की जांच इतने कम समय में संभव नहीं है और यह संविधान का उल्लंघन है।कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने तत्काल सुनवाई की मांग करते हुए कहा कि यह प्रक्रिया गरीबों और वंचितों के मताधिकार पर सीधा हमला है।
चुनाव आयोग का पक्ष: नियमित और पारदर्शी प्रक्रिया
इन आरोपों पर चुनाव आयोग ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि यह एक संवैधानिक और नियमित प्रक्रिया है, जिसे पिछले 75 वर्षों से समय-समय पर किया जाता रहा है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त ज्ञानेश कुमार ने 4 जुलाई को स्पष्ट किया:"इसका उद्देश्य केवल भारतीय नागरिकों को वोटिंग अधिकार देना है और अवैध प्रवासियों जैसे नेपाल, बांग्लादेश या म्यांमार से आए लोगों को सूची से हटाना है।"
चुनाव आयोग ने यह भी बताया कि:
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2003 की सूची को आधार मानते हुए कई लोगों को दस्तावेज़ देने की आवश्यकता नहीं होगी।
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एक विज्ञापन में भ्रमवश गलत जानकारी दी गई थी, जिसे अब स्पष्ट किया जा चुका है।
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यह प्रक्रिया केवल बिहार ही नहीं, बल्कि असम, केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में भी लागू की जा रही है।
बीजेपी और एनडीए का बचाव, लेकिन सहयोगियों की चिंता
बीजेपी नेता रविशंकर प्रसाद ने विपक्षी दलों पर निशाना साधते हुए कहा:"जिनके राज में बूथ कैप्चरिंग आम थी, उन्हें अब पारदर्शिता से परेशानी हो रही है।"हालांकि, जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) जैसे एनडीए के सहयोगी दलों ने भी समयसीमा और क्रियान्वयन को लेकर चिंता जताई है।
चुनावी साल में प्रक्रिया या राजनीति?
बिहार में मतदाता सूची का यह विशेष पुनरीक्षण एक संवैधानिक प्रक्रिया हो सकता है, लेकिन इसकी समय-सीमा, दस्तावेज़ों की मांग और कार्यान्वयन की पारदर्शिता पर गंभीर सवाल खड़े हो चुके हैं।
विपक्ष इसे जनतंत्र के खिलाफ साजिश बता रहा है, जबकि चुनाव आयोग इसे लोकतंत्र की मजबूती के लिए ज़रूरी कदम कह रहा है। अब सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिकी हैं, जो इस मुद्दे का कानूनी मार्ग तय करेगा।

