सड़क से संसद तक राष्ट्रहित से परे सियासत

(डॉ. सुधाकर आशावादी – विभूति फीचर्स)
"सब है पीतल यहाँ, कोई कंचन नहीं
धूल ही धूल है, आज चंदन नहीं
देश की सबको चिंता बहुत है मगर
पर दिशा कुछ नहीं, कोई चिंतन नहीं।"
ये पंक्तियाँ भले ही अतीत में लिखी गई हों, लेकिन आज के राजनीतिक परिदृश्य को बेहद सटीक ढंग से प्रतिबिंबित करती हैं। हाल ही में पहलगाम में पर्यटकों की पहचान और धर्म पूछकर किए गए आतंकी हमले के बाद भारतीय सेना द्वारा चलाया गया ऑपरेशन सिंदूर एक निर्णायक और सशक्त सैन्य कार्रवाई थी। इस ऑपरेशन में पाकिस्तान समर्थित आतंकी ठिकानों को नष्ट कर दिया गया। वैश्विक स्तर पर भारत की इस साहसी और निर्णायक कार्रवाई की सराहना की गई।
लेकिन दुर्भाग्यवश, देश के अंदर ही कुछ राजनीतिक दल और सत्ता विरोधी समूह इस सफलता को पचा नहीं पाए। सेना की इस उपलब्धि को राजनीति के चश्मे से देखने की कोशिश की गई। बजाय इसके कि वे इस राष्ट्रीय सफलता पर गर्व करें, उन्होंने उसमें खामियाँ तलाशने और सरकार को घेरने में अपनी ऊर्जा लगा दी।
राष्ट्र की मजबूती के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दल राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानें। जब देश वैश्विक मंच पर आतंक के खिलाफ एकजुट और मजबूत संदेश देता है, तब आंतरिक राजनीतिक एकता उसकी शक्ति को और प्रबल कर सकती है। लेकिन विडंबना यह है कि विपक्ष की प्राथमिकता न तो सेना की प्रतिष्ठा है, न ही राष्ट्रीय सुरक्षा—बल्कि अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन को वापस पाने की जद्दोजहद है।
विदेशी मीडिया और नेताओं के आधारहीन बयानों को हथियार बनाकर भारत की सैन्य कार्रवाई पर सवाल उठाना न सिर्फ गैरजिम्मेदाराना है, बल्कि राष्ट्रहित के विपरीत भी है। ऑपरेशन सिंदूर की मात्र 22 मिनट की कार्रवाई में आतंकियों के कई ठिकाने ध्वस्त कर दिए गए और उनके आकाओं के होश उड़ा दिए। इसके बावजूद कुछ दल इस पर गर्व करने के बजाय संदेह जताते रहे।
अगर विपक्ष वाकई राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध होता, तो न सड़क पर, न संसद में ऐसी कार्रवाई को लेकर सवाल उठाता। आतंकियों के खिलाफ जवाबी हमले को "युद्ध" कहकर, सरकार को "कायर" कहना सरासर नासमझी और दुर्भावना की मिसाल है। आतंक के खिलाफ जवाबी सैन्य कार्रवाई को युद्ध नहीं कहा जा सकता, और जब युद्ध ही नहीं हुआ, तो "युद्धविराम" का सवाल भी बेमानी है।
विपक्ष जिस प्रकार ऑपरेशन सिंदूर पर राजनीति करना चाहता था, उसमें वह पूरी तरह असफल रहा है। आतंकियों के प्रवेश, उनकी पहचान, और उन्हें समाप्त करने की कार्रवाई में भारतीय सेना की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाना केवल सस्ती राजनीति है।
उल्लेखनीय है कि पहलगाम हमले के मास्टरमाइंड को ऑपरेशन महादेव के तहत मार गिराया गया। क्या विपक्ष अब इस पर भी सवाल उठाएगा कि संसद में बहस के समय ही आतंकी का खात्मा क्यों हुआ?
मजबूत लोकतंत्र में प्रभावी विपक्ष की आवश्यकता होती है, लेकिन जब विपक्ष स्वयं सेना, सरकार और नागरिकों पर भरोसा खो दे, तब वह न केवल अपनी भूमिका से च्युत होता है, बल्कि देश को अंतरराष्ट्रीय मंच पर कमजोर भी करता है।
प्रश्न यह नहीं कि विपक्ष सरकार से सवाल कर रहा है, प्रश्न यह है कि क्या वह राष्ट्र और उसकी सेना के प्रति वफादार है? यदि हाँ, तो ऐसी राष्ट्र विरोधी सियासत का औचित्य क्या है?
