नेहरू के दस्तावेजों की वापसी की मांग पर गरमाई राजनीति, गांधी परिवार की चुप्पी सवालों के घेरे में

Politics heated up over the demand for return of Nehru documents Gandhi family's silence under question
 
नेहरू के दस्तावेजों की वापसी की मांग पर गरमाई राजनीति, गांधी परिवार की चुप्पी सवालों के घेरे में
संजय सक्सेना, वरिष्ठ पत्रकार  — देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की विरासत एक बार फिर राष्ट्रीय बहस के केंद्र में है। इस बार मुद्दा उनके विचारों या नीतियों का नहीं, बल्कि उनके व्यक्तिगत और ऐतिहासिक दस्तावेजों का है, जिनकी वापसी के लिए प्रधानमंत्री संग्रहालय एवं पुस्तकालय सोसाइटी (PMML) ने औपचारिक रूप से कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं सोनिया गांधी और राहुल गांधी से अनुरोध किया है।

संजय सक्सेना, वरिष्ठ पत्रकार

क्या है पूरा मामला?

PMML का कहना है कि 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नेहरू से संबंधित 51 पेटियों में बंद पत्र, निजी दस्तावेज और ऐतिहासिक अभिलेख राष्ट्रीय संग्रहालय को सौंपे थे। लेकिन वर्ष 2008 में, यूपीए सरकार के कार्यकाल में, इन्हें गांधी परिवार के पास वापस भेज दिया गया। अब प्रधानमंत्री संग्रहालय ने इन अभिलेखों की वापसी की मांग की है ताकि उन्हें सार्वजनिक शोध और ऐतिहासिक अध्ययन के लिए उपलब्ध कराया जा सके।

PMML की हालिया बैठक में, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान सहित कई वरिष्ठ नेता मौजूद रहे। बैठक में तय किया गया कि यदि दस्तावेज़ स्वेच्छा से वापस नहीं किए गए, तो कानूनी विकल्प अपनाए जाएंगे।

 दस्तावेजों का महत्व क्या है?

इन दस्तावेजों में नेहरू द्वारा एडविना माउंटबेटन, अल्बर्ट आइंस्टीन, जयप्रकाश नारायण, पद्मजा नायडू, विजया लक्ष्मी पंडित, अरुणा आसफ अली और बाबू जगजीवन राम जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को लिखे गए पत्र शामिल हैं। इनमें उस दौर की राजनीति, कूटनीति और निजी संवादों की अमूल्य जानकारी है, जो भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए अत्यंत आवश्यक मानी जा रही है।

 गांधी परिवार की चुप्पी क्यों?

कांग्रेस की ओर से अब तक कोई औपचारिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि गांधी परिवार इन दस्तावेजों को इसलिए सार्वजनिक नहीं करना चाहता क्योंकि इनमें कुछ ऐसे व्यक्तिगत प्रसंग हो सकते हैं, जिनकी व्याख्या आज के सोशल मीडिया युग में तोड़ी-मरोड़ी जा सकती है।

हालाँकि, यह सवाल भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि यदि ये दस्तावेज़ निजी थे, तो उन्हें 1971 में सार्वजनिक संस्थान को क्यों सौंपा गया? और अगर वे राष्ट्रीय धरोहर हैं, तो फिर 2008 में उन्हें बिना सार्वजनिक घोषणा के क्यों लौटा लिया गया?

 कानूनी लड़ाई की तैयारी

PMML का स्पष्ट मत है कि एक बार दान में दी गई सामग्री सार्वजनिक संपत्ति बन जाती है, जिसे निजी अधिकार में रखना संवैधानिक सिद्धांतों के खिलाफ है। संस्था का तर्क है कि इतिहास पारदर्शिता से संरक्षित होता है, गोपनीयता से नहीं। यदि दस्तावेज वापस नहीं किए गए, तो संस्था अदालत का दरवाजा खटखटाने को तैयार है।

राजनीतिक प्रतिक्रिया और नैतिक सवाल

भाजपा नेताओं ने इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेरना शुरू कर दिया है। प्रवक्ता संबित पात्रा ने सवाल उठाया, "इन पत्रों में ऐसा क्या है जिसे छिपाने की कोशिश हो रही है?" वहीं, सोशल मीडिया पर बीजेपी के आईटी प्रमुख अमित मालवीय ने कांग्रेस से दस्तावेज़ लौटाने की मांग करते हुए पारदर्शिता की दुहाई दी।

यदि यह मामला अदालत में जाता है और दस्तावेजों को सार्वजनिक करने का आदेश आता है, तो यह कांग्रेस के लिए राजनीतिक और नैतिक चुनौती बन सकता है। वहीं, अगर अदालत गांधी परिवार के पक्ष में फैसला देती है, तो सरकार की पारदर्शिता नीति पर सवाल उठ सकते हैं।

 इतिहास का सवाल: जनता का अधिकार या पारिवारिक धरोहर?

तीन मूर्ति मार्ग स्थित प्रधानमंत्री संग्रहालय देश के सभी प्रधानमंत्रियों के जीवन और कार्यों से जुड़ी सामग्री को संजो रहा है। लेकिन नेहरू से संबंधित दस्तावेजों की अनुपस्थिति ऐतिहासिक दृष्टिकोण से एक बड़ी रिक्तता मानी जा रही है।

यह बहस अब केवल दस्तावेज़ों की नहीं, बल्कि उस लोकतांत्रिक विश्वास की भी है, जिसके तहत इतिहास जनता की साझा संपत्ति होता है — किसी एक परिवार की निजी थाती नहीं।

अब यह देखना शेष है कि अदालत इस विवाद में किस ओर खड़ी होती है — क्या नेहरू की चिट्ठियाँ फिर से सार्वजनिक मंच पर लौटेंगी या एक बार फिर अलमारियों में बंद रह जाएंगी?

Tags