नेताओं की चुप्पी और हंगामे की राजनीति: सियासी रणनीति या जनभावनाओं से खिलवाड़?
Silence of leaders and politics of uproar: Political strategy or playing with public sentiments?
Wed, 9 Jul 2025
भारतीय राजनीति एक ऐसा मंच बन चुकी है, जहां हर दिन नया ‘नाटक’ रचा जाता है—कभी किसी गंभीर मुद्दे पर सन्नाटा, तो कभी मामूली घटनाओं पर तूफान। यह चुप्पी और हंगामा यूं ही नहीं होता, बल्कि एक रणनीति के तहत रचा गया खेल होता है, जो या तो जनता का ध्यान भटकाने के लिए होता है या फिर अपने समर्थक वर्ग को साधने के लिए। मुद्दों को चुनकर, बोलने या न बोलने की यह राजनीति अब सियासत की बुनियादी रणनीति बन चुकी है।
महाराष्ट्र में भाषा विवाद और उत्तर भारतीयों पर हमले: डर की चुप्पी
हाल ही में महाराष्ट्र में मराठी अस्मिता के नाम पर उत्तर भारतीयों को निशाना बनाया गया, लेकिन हैरानी की बात यह रही कि उत्तर भारत की राजनीति करने वाले नेता इस मामले में मौन साधे रहे। कांग्रेस नेता राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे हों या फिर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव—किसी ने भी खुलकर कुछ नहीं कहा। जबकि ये वही नेता हैं जो बाकी मुद्दों पर सबसे आगे नजर आते हैं। क्या यह चुप्पी सिर्फ डर है या वोट बैंक की सियासत?
चुनिंदा मुद्दों पर हंगामा, असली समस्याओं पर खामोशी
जब बात किसी राजनीतिक लाभ वाले मुद्दे की होती है, तो वही नेता और दल जो कल तक मौन थे, अचानक सक्रिय हो जाते हैं। सोशल मीडिया ट्रेंड्स से लेकर सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन और टेलीविज़न चैनलों पर घंटों की बहस—यह सब उस नाटकीयता का हिस्सा होता है जिसे ‘सियासी ड्रामा’ कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान कई छोटे मुद्दों को बड़ा बनाकर प्रचारित किया गया, जबकि बेरोजगारी और महंगाई जैसे वास्तविक मुद्दे चर्चा से बाहर रह गए।
चुप्पी की सियासत: वोट बैंक का खेल
भारत जैसे विविधता भरे देश में, जहां राजनीति जाति, धर्म और क्षेत्रीय पहचान के इर्द-गिर्द घूमती है, वहां चुप्पी अक्सर किसी मुद्दे से सहमति नहीं, बल्कि नुकसान से बचाव का तरीका होती है। जैसे ही कोई ऐसा मुद्दा सामने आता है जो किसी खास वर्ग को प्रभावित कर सकता है, नेता चुप्पी ओढ़ लेते हैं ताकि उनकी राजनीतिक जमीन न खिसक जाए। दूसरी ओर, जब कोई मामला प्रतिद्वंद्वी दल को घेरने का मौका देता है, तो अचानक उस पर हंगामा मचने लगता है।
मीडिया और सोशल मीडिया: सियासत का नया हथियार
आज की राजनीति में सोशल मीडिया एक सशक्त माध्यम बन चुका है, लेकिन इसका उपयोग सूचना देने से अधिक माहौल बनाने के लिए हो रहा है। किसी नेता का पुराना बयान वायरल करके हंगामा खड़ा कर देना, ट्रेंड्स के जरिए जनभावनाओं को भड़काना, या टीवी पर मुद्दे को दिन-रात घसीटना—यह सब सियासी स्क्रिप्ट का हिस्सा बन गया है। लेकिन जब वही बयानों की आग उनके अपने गिरेबान तक पहुंचती है, तो फिर वही चुप्पी सामने आ जाती है।
भीतर की खामोशी: दलों के अंदरूनी समीकरण
कई बार नेताओं की चुप्पी सिर्फ बाहरी मुद्दों पर ही नहीं होती, बल्कि पार्टी के अंदरूनी मसलों पर भी दिखाई देती है। उदाहरण के लिए, बसपा सुप्रीमो मायावती ने एक ओर पहलगाम आतंकी हमले के बाद बयान देकर सियासत में प्रासंगिकता बनाए रखने की कोशिश की, वहीं अपने भतीजे आकाश आनंद की वापसी पर उन्होंने सावधानीपूर्वक चुप्पी साधी, जिससे पार्टी में अंदरूनी विवाद ना उभरे।
स्थानीय राजनीति में भी यही पैटर्न
यह खेल केवल राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय राजनीति तक सीमित नहीं है। स्थानीय निकाय चुनावों में भी जब सड़कों की मरम्मत या जल आपूर्ति जैसे मुद्दों पर हंगामा होता है, तब वही नेता बड़े नीतिगत सुधारों पर चुप रहते हैं क्योंकि इन मसलों से उन्हें तात्कालिक राजनीतिक लाभ नहीं मिलता।
जनता का नुकसान: असल मुद्दे हाशिये पर
इस चुप्पी और हंगामे की सियासत का सबसे बड़ा नुकसान आम जनता को होता है। बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे असली मुद्दे कहीं पीछे छूट जाते हैं, जबकि नेताओं के भाषणों, ट्विटर युद्धों और मीडिया ड्रामों से सियासत गरमाई रहती है। इससे लोकतंत्र कमजोर नहीं तो दिशाहीन ज़रूर होता जा रहा है।
सियासत के मूल उद्देश्य को समझने का
वर्तमान समय की राजनीतिक स्थितियों में जनता पहले से अधिक सजग हो चुकी है। सोशल मीडिया ने जहां नेताओं को मंच दिया है, वहीं जनता को सवाल पूछने का भी साहस दिया है। अब वक्त है कि नेता और राजनीतिक दल अपने हंगामे और चुप्पियों की रणनीति से आगे बढ़ें और उन वास्तविक मुद्दों की बात करें जो देश और समाज के लिए जरूरी हैं। क्योंकि अगर अब भी राजनीति सिर्फ नाटक बनकर रह गई, तो जनता भी मंच से उतरने में देर नहीं करेगी।

