हिमालय की रक्षा: एक वैश्विक अनिवार्यता और सतत विकास की चुनौती

Protecting the Himalayas: A global imperative and a challenge for sustainable development
 
हिमालय की रक्षा: एक वैश्विक अनिवार्यता और सतत विकास की चुनौती

(विवेक रंजन श्रीवास्तव -विभूति फीचर्स)  मानवीय हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के गठजोड़ ने हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी पर गंभीर संकट पैदा कर दिया है। 'विश्व की छत' और 'तीसरे ध्रुव' के रूप में विख्यात हिमालय, जो करोड़ों लोगों, वनस्पतियों (फ्लोरा) और जीवों (फ़ोना) की जीवन रेखा है, अपनी विशालता के बावजूद अत्यंत नाजुक है। यह भू-वैज्ञानिक दृष्टि से सक्रिय है, प्रतिवर्ष लगभग 5 मिलीमीटर ऊँचा उठ रहा है, जिसका अर्थ है कि इसका प्राकृतिक सेटलमेंट होना अभी बाकी है, और भूस्खलन जैसी प्राकृतिक प्रक्रियाएँ निरंतर चलती रहती हैं। लेखक विवेक रंजन श्रीवास्तव के अनुसार, 'विकास' के नाम पर हुए अनियंत्रित निर्माण और बड़ी परियोजनाओं ने इसके अस्तित्व के लिए गंभीर संकट खड़ा कर दिया है।

जलविद्युत परियोजनाएँ: विकास बनाम विनाश

 

हिमालयी क्षेत्र को भारत का 'पावर हाउस' माना जाता है, जहाँ 1,15,550 मेगावाट की संभावित जलविद्युत क्षमता है। परियोजनाओं का बढ़ता पैमाना हिमालय पर खतरा बढ़ा रहा है:

  • परियोजनाओं की संख्या: नवंबर 2022 तक इस क्षेत्र के 10 राज्यों और 2 केंद्रशासित प्रदेशों में 81 बड़ी जलविद्युत परियोजनाएँ (25 मेगावाट से अधिक) कार्यशील थीं और 26 निर्माणाधीन थीं। 320 और परियोजनाएँ क्रियान्वयन स्वीकृति हेतु विचाराधीन हैं।

  • नदी पर प्रभाव: हिमाचल प्रदेश की सतलुज नदी घाटी में यदि सभी प्रस्तावित परियोजनाएँ बन जाती हैं, तो नदी का 22% हिस्सा बाँध के पीछे झील के रूप में खड़ा रहेगा, और 72% हिस्सा सुरंगों के भीतर बहेगा।

  • वनों की कटाई: जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई की जाती है। किन्नौर जिले में 2014 तक 90% वन भूमि का हस्तांतरण जलविद्युत परियोजनाओं और ट्रांसमिशन लाइनों के लिए किया गया था।

  • क्षतिपूरक वनीकरण की विफलता: क्षतिपूरक वनीकरण की नीति भी प्रभावी नहीं रही है, क्योंकि नए पौधारोपण अक्सर असफल हो जाते हैं और वनों के वास्तविक नुकसान की भरपाई नहीं कर पाते।

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आपदाएँ और स्थानीय समुदायों पर प्रभाव

 

परियोजनाओं के निर्माण से भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ी हैं (जैसे रुद्रप्रयाग और टिहरी में)। हिमालय भूकंपीय रूप से सक्रिय और भूस्खलन के प्रति संवेदनशील क्षेत्र है, जिसे जलवायु परिवर्तन ने और गंभीर बना दिया है।

  • बढ़ती आपदाएँ: ग्लेशियरों के पिघलने, पर्माफ्रॉस्ट के अस्थिर होने, तड़ित बिजली और बादल फटने जैसी घटनाओं में वृद्धि हुई है। हाल के वर्षों में जलविद्युत परियोजनाओं से जुड़ी आपदाओं की आवृत्ति चिंताजनक रही है:

    • 2013 केदारनाथ बाढ़: फाटा-ब्युंग, सिंगोली-भटवारी और विष्णुप्रयाग परियोजनाएँ क्षतिग्रस्त हुईं।

    • 2021 भूस्खलन/हिमस्खलन: ऋषि गंगा परियोजना का विनाश हुआ, विष्णुगढ़-तपोवन परियोजना क्षतिग्रस्त हुई, 200 से अधिक लोगों की मौत हुई।

  • सामाजिक मूल्य: स्थानीय समुदाय इन परियोजनाओं की भारी कीमत चुका रहे हैं। उनकी आजीविका के स्रोत (वन और जल) नष्ट हो रहे हैं, युवाओं का पलायन बढ़ रहा है, और महिलाओं व बुजुर्गों पर घरेलू जिम्मेदारी का बोझ बढ़ा है।

आगे की राह: सतत विकास और वैज्ञानिक पुनर्मूल्यांकन

हिमालय के संरक्षण और सतत विकास के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

  1. वैज्ञानिक पुनर्मूल्यांकन: हिमालय में अधिकांश परियोजनाओं की परिकल्पना 10-15 वर्ष पहले की गई थी। अब वर्तमान वैज्ञानिक आँकड़ों (जैसे भूकंपीय संवेदनशीलता) के आधार पर इन परियोजनाओं का सख्त पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए।

  2. स्थानीय भागीदारी: परियोजना पर निर्णय लेने से पूर्व स्थानीय पंचायत की लिखित सहमति ली जानी चाहिए। नीतियों में स्थानीय जनता, विशेषकर महिलाओं की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।

  3. कड़े नियम: पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना और बड़ी निर्माण परियोजनाओं को अनुमति देने के निर्णयों पर पुनर्विचार करना आवश्यक है। भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन (BESZ) जैसी सुरक्षात्मक व्यवस्थाओं का कड़ाई से पालन सुनिश्चित करना होगा।

हिमालय की रक्षा केवल किसी एक क्षेत्र या देश की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि यह एक वैश्विक अनिवार्यता है। स्वच्छ ऊर्जा प्राप्त करने का लक्ष्य महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे हिमालय जैसी नाजुक पारिस्थितिकी प्रणाली की कीमत पर पूरा नहीं किया जाना चाहिए। हमें विकास की अपनी अवधारणा पर पुनर्विचार कर प्रकृति के संरक्षण और मानव की आवश्यकताओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने वाले मॉडल को अपनाना होगा।

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