संविधान की प्रस्तावना पर सवाल या भारत की आत्मा पर बहस? संघ की टिप्पणी से खड़ा हुआ नया विमर्श

Question on the Preamble of the Constitution or debate on the soul of India? A new discussion stood up with the Sangh's comment
 
संविधान की प्रस्तावना पर सवाल या भारत की आत्मा पर बहस? संघ की टिप्पणी से खड़ा हुआ नया विमर्श

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार  |  भारतीय राजनीति में जब भी संविधान पर बहस छिड़ती है, वह केवल क़ानूनी या तकनीकी दायरे में सीमित नहीं रहती—वह सीधे देश की आत्मा, पहचान और लोकतांत्रिक मूल्यों को छूती है। हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के एक बयान ने इसी संवेदनशील धरातल को झकझोर दिया है।

उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ जैसे शब्द 1976 में आपातकाल के दौरान बिना जनता की सहमति के जोड़े गए थे और अब वक्त आ गया है कि इन पर पुनर्विचार हो। उनका यह वक्तव्य महज़ एक राय नहीं, बल्कि एक व्यापक वैचारिक बहस की चिंगारी है जो देश की लोकतांत्रिक संरचना और उसकी विविधता को नए सिरे से परखने को प्रेरित करती है।

संविधान की प्रस्तावना पर सवाल या भारत की आत्मा पर बहस? संघ की टिप्पणी से खड़ा हुआ नया विमर्श

इतिहास की पृष्ठभूमि: इमरजेंसी और 42वां संविधान संशोधन

1976 में इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल की परिस्थितियों में 42वां संशोधन पारित कर प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े थे। उस दौर में लोकतंत्र की आवाज़ दबाई गई, विपक्ष निष्क्रिय था और संसद एक औपचारिकता मात्र रह गई थी। इसीलिए संघ का तर्क है कि ये संशोधन जनभावना के विरुद्ध थे।

 विपक्ष का पलटवार और वैचारिक ध्रुवीकरण

होसबाले के बयान पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने तीखी प्रतिक्रिया दी। जयराम रमेश ने कहा, "संघ शुरू से ही संविधान का विरोध करता रहा है।" मनिकम टैगोर ने इसे "मनुस्मृति आधारित सोच" का हिस्सा बताते हुए भारत की बहुलतावादी परंपरा पर खतरा बताया। लेकिन यह विवाद केवल राजनीतिक बयानबाज़ी तक सीमित नहीं है; इसकी संवैधानिक जड़ें गहरी हैं।

 संविधान सभा में भी था विरोध और मतभेद

संविधान सभा के सदस्य केटी शाह ने प्रस्तावना में ये शब्द जोड़ने का सुझाव दिया था, लेकिन डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसका विरोध किया।उन्होंने कहा कि ‘समाजवाद’ जैसा शब्द लोकतंत्र के लचीलेपन को बाधित कर सकता है।धर्मनिरपेक्षता पहले से ही मौलिक अधिकारों में अंतर्निहित है और समाजवाद नीति निर्देशक तत्वों में परिलक्षित होता है। यहां तक कि नेहरू ने भी प्रस्तावना में इन शब्दों को जोड़ने की कोई ज़रूरत नहीं समझी थी।

न्यायपालिका का दृष्टिकोण: संविधान एक जीवंत दस्तावेज

  • केशवानंद भारती केस (1973) में सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावना को संविधान का मूल अंग बताया था।

  • बलराम सिंह बनाम भारत सरकार (2024) केस में कोर्ट ने इन शब्दों को हटाने की याचिका खारिज कर दी।

  • न्यायालय ने कहा कि संसद संशोधन कर सकती है, पर मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं हो सकती।

 समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता: दो विचार, दो दृष्टिकोण

RSS और भाजपा विचारधारा:

  • 'धर्मनिरपेक्षता' के नाम पर तुष्टीकरण का आरोप

  • ‘समाजवाद’ को सरकारी नियंत्रण, लाइसेंस राज और निजी पहल के विरोध से जोड़ते हैं

कांग्रेस व विपक्षी दल:

  • इन शब्दों को संविधान की आत्मा का प्रतिबिंब मानते हैं

  • भारत की विविधता, समानता और समावेशी सोच का प्रतिनिधित्व बताते हैं

 बहस का मूल प्रश्न: भारत किस दिशा में जाना चाहता है?

यह बहस महज़ दो शब्दों तक सीमित नहीं, बल्कि राष्ट्र की वैचारिक दिशा तय करने वाली है।क्या भारत आने वाले वर्षों में ‘विविधता में एकता’ बनाए रखेगा या एकरूपता की ओर बढ़ेगा? क्या संविधान समयानुकूल बदलने वाला दस्तावेज है या अटल मूल्यों का प्रतिबिंब?

ज़रूरत व्यापक, रचनात्मक और लोकतांत्रिक संवाद की

इस विवाद को केवल राजनीतिक नजरिए से नहीं, बल्कि एक संवैधानिक और नैतिक विमर्श के रूप में देखा जाना चाहिए। भारत की जनता को तय करना है कि वे किस प्रकार का भारत चाहते हैं एक ऐसा भारत जो समावेशी हो, सभी मतों और विचारों को स्थान दे, या ऐसा भारत जो एक दिशा, एक सोच और एक पहचान में सिमट जाए।

Tags