कितना गलत इतिहास पढ़ाया जा रहा है क़ुतुब मीनार के निर्माण के बारे में जानिए असलियत किसने बनवाया क़ुतुब मीनार ?

क़ुतुब मीनार  निर्माण के बारे में दी जा रही है गलत जानकारी 
 
qutab minar

 कुतुबमीनार की सच्चाई क्या है ? कुतुबमीनार निर्माण की असली कहानी क्या है ?

        इस संपूर्ण पृथ्वी के सबसे प्राचीन व पौराणिक धर्म सनातन धर्म का इतिहास युगों पुराना है,यदि हम लिखित इतिहास की बात करें तो हिन्दू धर्म का 5000 वर्षों पुराना लिखित इतिहास आज विश्व में प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हैं,किन्तु भारत के असली व सत्य इतिहास को समझने के लिए सबसे पहले हमें विदेशी इतिहासकारों की इस थ्योरी को नकारना होगा जिसमें आर्यों को लुटेरों को रूप में तथाकथित इतिहासकारों ने प्रदर्शित किया है किन्तु अब ये बात पूर्णरूपेण साक्ष्यों के साथ स्पष्ट हो चुकी है कि आर्य कोई लुटेरे नहीं वरन इसी भारतवर्ष के वो मूल निवासी हैं जिन्होंने मानव सभ्यता,संस्कृति,ज्ञान-विज्ञान एवं विकास के चक्र को पूरे विश्व में पहुँचाने का सफल कार्य किया I

 
           आज़ादी के बाद भारतीय इतिहास में जिस तरह तथाकथित इतिहासकारों के द्वारा इस देश में उपलब्ध जितनी भी ऐतिहासिक इमारतें हैं उनको किसी न किसी मुग़ल शासक या नवाब के द्वारा ही बनवाया गया बताया गया है,वो विश्व में एक दुर्लभ उदाहरण है,साथ ही मुगल कालीन स्मारकों और उनके तथाकथित वैभवशाली इतिहास का विस्तृत वर्णन भी इतिहास की पुस्तकों में खूब जमकर किया गया,ऐसे भ्रमित करने वाले, शंकालु और कपोलकल्पित इतिहास को पढ़कर भारतवर्ष के मूल निवासियों के मन में अनेकों अनुत्तरित प्रश्नों का उठना स्वाभाविक है I आज हम आपको ऐसे ही एक प्रश्न का उत्तर प्रमाणिक तथ्यों के साथ देंगे I      

कुतुबमीनार किसने बनवाया ?   
           

एक तरफ तो भारतीय इतिहास हमें पांडवों से लेकर सम्राट अशोक व पृथ्वीराज चौहान तक कम से कम 3000 वर्षों और उसके बाद महाराजा रणजीत सिंह,गुरु गोबिंद सिंह,शिवाजी महाराज तक के इतिहास में ये बताता है कि ये सभी राजा अत्यंत प्रभावशाली व महान थे और किसी का तो अफगानिस्तान तक किसी का आधे से ज्यादा भारतवर्ष पर एकक्षत्र शासन था दूसरी तरफ इस देश में इनके नाम का कोई भी स्मारक या ऐतिहासिक महल होने का वर्णन भी ये इतिहासकार कुटिल चतुराईपूर्वक नहीं करते, यदि इन राजा महाराजाओं ने हजारों वर्षों में कोई भी निर्माण नहीं कराया तो उनके राजसेवक,सेना,स्वयं राजा व उस राज्य की जनता आखिर कहाँ रहती थी ? इतिहास में तो ये वर्णन है कि भारत एक ऐसा देश था जहाँ दूध-दही और घी की नदियां बहती थीं, हर व्यक्ति सुखी व संपन्न था और उसी वैभव व सम्रद्धि को लूटने के लिए बर्बर विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत पर हमले किये,फिर उस समय की वास्तुकला व निर्माण के इन गौरवशाली तथ्यों को क्यों आमजनमानस के सामने प्रमाणिक रूप से नहीं प्रस्तुत किया गया ?
       

कुतुबमीनार का निर्माण किसने करवाया ? 

 

प्रश्न ये उठता है कि यदि अमेरिका अमरीकियों के द्वारा,जापान जापानियों के द्वारा,फ़्रांस फ्रांसीसियों के द्वारा,रूस रूसियों के द्वारा, रोम रोमनवासियों के द्वारा बसाया और बनाया गया तो फिर भारत में ही ऐसा किस तरह हो गया कि दिल्ली,आगरा,फतेहपुर सीकरी,इलाहाबाद,अहमदाबाद,लखनऊ,फैजाबाद इत्यादि अनेकों शहर व उनके महल उन विदेशी लुटेरों ने बसाये एवं बनवाये जो मूलतः दुनिया के सबसे पिछड़े देशों अफगान,तुर्क,ईरानी,मंगोल,अबिसीनियन,कज़क और उज्बेकिस्तान के नागरिक थे और वो भी ऐसी वास्तुकला और भवन निर्माणकला के द्वारा जो हिन्दू वास्तुकला से पूर्णतया मिलती-जुलती है ? अगर ये लुटेरे इतने ही बड़े वास्तुशास्त्री या भवन निर्माणकर्ता थे तो आज हजारों वर्षों के बाद भी इनके मूल देशों में ऐसी कोई भी दुर्लभ इमारत या भवन-किला इत्यादि क्यों नहीं उपलब्ध है और यदि भारतीय राजा-महाराजा इतने ही मूर्ख-गंवार और नौसिखिये थे तो फिर मदुरई के विश्वविख्यात मंदिर,रामेश्वरम् सेतु,कोणार्क का सूर्य मंदिर,अजंता एलोरा की गुफाएं,पत्थरों की चट्टानों को काटकर अनेकों महल,आबू पर्वत पर मंदिर,रणथम्बौर जैसे दुर्लभ किले,चित्तौड़ और उदयपुर जैसे राजप्रासाद इत्यादि अनेकों हिन्दू निर्माण क्या आज भारतीय सभ्यता व संस्कृति के प्रमाण के रूप में उपलब्ध नहीं हैं फिर इनका वर्णन इतिहास में क्यों नहीं किया गया ?        
       

  भारतीय इतिहास में 275 ई–455 ई. तक के गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। इसे भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार, वैचारिक सहिष्णुता, आर्थिक समृद्धि तथा शासन व्यवस्था की स्थापना काल के रूप में जाना जाता है। मूर्तिकला के क्षेत्र में देखें तो गुप्त काल में भरहुत, अमरावती, सांची तथा मथुरा कला की मूर्तिर्यों में कुषाण कालीन प्रतीकों तथा प्रारंभिक मध्यकालीन युग की नग्नता के मध्य अच्छे संश्लेषण तथा जीवतंता का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करती है। स्थापत्य के क्षेत्र में देवगढ़ का दशावतार मंदिर, भूमरा का शिव मंदिर, बोध गया और सांची के उत्कृष्ट स्तूपों का निर्माण हुआ। चित्रकला के क्षेत्र में अजंता, एलोरा तथा बाघ की गुफाओं में की गई, चित्रकारी तथा फ्रेस्को चित्रकारी परिष्कृत कला के उदाहरण हैं। साहित्य के क्षेत्र में एक ओर कालिदास ने मेघदूतम्, ऋतुसंहार तथा अभिज्ञान शांकुतलम् की रचना की तो दूसरी ओर नाटक तथा कविता लेखन में एक नये युग की युरुआत हुई।  विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में आर्यभट्ट ने जहाँ एक ओर पृथ्वी की त्रिज्या की गणना की और सूर्य-केंद्रित ब्रह्माण्ड का सिद्धांत दिया वहीं दूसरी ओर वराहमिहिर नामक महान गणितज्ञ,खगोलशास्त्री व ज्योतिषी ने चन्द्र कैलेण्डर के शुरुआत की। गुप्तकाल में विज्ञान प्रौद्योगिकी से लेकर साहित्य, स्थापत्य तथा मूर्तिकला के क्षेत्र में नये कीर्तिमानों की स्थापना की गई इसी कारण इस काल को  भारतीय इतिहास में ‘स्वर्ण युग’ के रूप में जाना जाता है ।

क़ुतब मीनार के अंदर गणेश जी की मूर्ति

 कुतुबमीनार  पहले क्या था ? प्राचीन वेधशाला या कुतुबमीनार
    महान खगोलशास्त्री वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले विश्व को बताया था कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे। उज्जैन में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गुरुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय रहा। वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मेधावी और तेजस्वी थे। अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षेत्रों में उन्होंने व्यापक शोध कार्य किया। इन्होने ही इन्द्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) के मिहिरावली (वर्तमान महरौली) नामक स्थान पर प्राचीन वेधशाला (तथाकथित कुतुबमीनार) का निर्माण ज्योतिषीय व खगोलीय विधा के माध्यम से तारों,सूर्य व चन्द्रमा की गणना के लिए व उसके पास स्तिथ विश्व प्रसिद्ध व दुर्लभ “विष्णु ध्वज”, “गरुड़ स्तम्भ”, या “लौह स्तम्भ”  का निर्माण कराया और इन्हीं वराहमिहिर के नाम के अपभ्रंश से आज भी ये पूरा क्षेत्र महरौली के नाम से ही प्रसिद्ध है,इन्ही वराहमिहिर ने 550 ई. के लगभग तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका  लिखीं। इन पुस्तकों में त्रिकोणमिति के महत्वपूर्ण सूत्र दिए हुए हैं जो वराहमिहिर के त्रिकोणमिति ज्ञान के परिचायक हैं।
       किन्तु इस देश का परम दुर्भाग्य ये है कि वराहमिहिर के द्वारा बनवाई गयी प्राचीन वेधशाला (तथाकथित कुतुबमीनार) भारत की राजधानी दिल्ली में आज दिल्ली की आन, बान और शान बनकर छद्म कुतुबमीनार के नाम से प्रसिद्ध है और इसको बनवाने का श्रेय एक बर्बर लुटेरे व भारत की अस्मिता लूटने वाले दुर्दांत आक्रमणकारी और महान राजा पृथ्वीराज चौहान के हत्यारे शहाबुद्दीन गोरी के गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दे दिया गया । जबकि इसका कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण हमारे तथाकथित स्वयंभू इतिहासकारों ने आज तक आमजनमानस के सामने प्रस्तुत नहीं किया जबकि इस प्राचीन वेधशाला (तथाकथित कुतुबमीनार) के समान विश्व इतिहास में हिन्दू स्थापत्य कला का कोई अन्य उदाहरण मिलना अत्यन्त दुर्लभ है । इस स्तंभ के देखने से पता चलता है कि भारत के मूल निवासी आर्यों की वास्तुकला, चित्र कला और स्थापत्य कला कितने उत्कृष्ट स्तर की थी एवं आज से हजारों वर्षों पूर्व भी वो ज्योतिष, गणित व खगोलशात्र के उच्चतम स्तर पर थे I  

क़ुतुब मीनार में लौह स्तम्भ
       

कुतुबमीनार निर्माण के बारे में इतिहास में दर्ज है झूंठ का पुलिंदा 

 तथाकथित इतिहासकारों ने लिखा है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने इस मीनार का निर्माण 1192 ई0 में आरम्भ किया था  किन्तु आज तक किसी ने उन इतिहासकारों से ये नहीं पूंछा कि 1192 ई0 में तो कुतुबुद्दीन ऐबक शहाबुद्दीन गोरी का एक गुलाम था, जो 1206 ईस्वी में शहाबुद्दीन गोरी की मृत्यु हो जाने के उपरान्त अपने आपको गुलाम से एक सुल्तान कहने की स्थिति में आया था । तब वह गुलाम रहते हुए ऐसा कैसे कर सकता था कि अपने मालिक के रहते हुए किसी मीनार को अपने नाम से बनवाना आरम्भ कर दे ? वैसे भी शहाबुद्दीन गोरी जैसे क्रूर और अत्याचारी शासक के रहते हुए यह संभव भी नहीं था कि उसका गुलाम इतना साहस करे कि वह हिंदुस्तान में कोई स्तम्भ अपने नाम से बनवाना आरम्भ कर दे। इसके अतिरिक्त इतिहास का एक सत्य यह भी है कि 1192 ई0 में भारत के सम्राट पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु हो जाने के उपरान्त भी तुर्कों का भारत की राजधानी दिल्ली में कोई वर्चस्व स्थापित नहीं हो पाया था, यहाँ के हिन्दू राजाओं की शक्ति ने उनके पैर टिकने नहीं दिए थे।
      1206 ईस्वी में शाहबुद्दीन गोरी की मृत्यु के पश्चात भारत के उसके विजित क्षेत्रों का शासक कुतुबुद्दीन ऐबक बना । शाहबुद्दीन गोरी की हत्या (१५ मार्च १२०६ ई०) के बाद २४ जून १२०६ को कुतुबुद्दीन ने अपना राज्याभिषेक किया, पर उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। इसका कारण था कि अन्य गुलाम सरदार यल्दौज और कुबाचा उससे ईर्ष्या रखते थे। उन्होंने मसूद को अपने पक्ष में कर ऐबक के लिए विषम परिस्थिति पैदा कर दी थी हालाँकि तुर्कों ने बंगाल तक के क्षेत्र को रौंद डाला था फिर भी उनकी सर्वोच्चता संदिग्ध थी क्योंकि कभी भी इन तुर्कों का शासन चैन से नहीं रहा लगातार राजपूत राजा भी इन पर हमले करते रहते थे जिससे अपने शासन काल के पहले 2 वर्ष ऐबक को अपने विरोधियों को परास्त करने में लगे । अपने कुल 4 वर्ष के शासन के अगले 2 वर्ष भी वह चैन से दिल्ली में रहकर अपने जीते गए क्षेत्रों पर शासन नहीं कर पाया था । 1210 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ऐबक अल्लाह को प्यारा हो गया। ऐतिहासिक पुस्तकों और कुतुबुद्दीन ऐबक की सरकारी विकिपीडिया के अनुसार उसके शासन के अंतिम 2 वर्ष में से उसका अधिकांश समय लाहौर में बीता था और वहीं वो मृत्यु को प्राप्त हो गया ।


     इन सब ऐतिहासिक तथ्यों की खुली उपेक्षा करके  भी भारत के इतिहास में तथाकथित इतिहासकारों ने यह लिख दिया गया कि कुतुबुद्दीन ने क़ुतुब मीनार ,कुवैतुल इस्लाम मस्जिद और अजयमेरु (अजमेर) में अढाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद भी बनवाई थी, जबकि ऐतिहासिक व अकाट्य सत्य तो ये है कि उसने भारत के महान शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक महान खगोलशास्त्री,गणितज्ञ व नक्षत्रों की सटीक गणना करने वाले वराहमिहिर की इस वेधशाला (तथाकथित कुतुबमीनार) के पास स्थित 27 मंदिरों का विध्वंस कराया था साथ ही उसने अपने द्वारा ऐसी ही एक अन्य मीनार बनाने का प्रयास किया था, जिसे अपनी अज्ञानता व मूर्खता के कारण नहीं बनवा पाया और जिसके ध्वंसावशेष आज भी वहाँ पड़े हुए हैं।
       history book refrence

इस वेधशाला स्तम्भ (तथाकथित कुतुबमीनार) का निर्माण मेरु पर्वत की आकृति के आधार पर किया गया है। जिस प्रकार मेरु पर्वत का स्वरूप ऊपर की तरफ पतला होता गया है, उसी प्रकार इस स्तम्भ का भी स्वरूप ऊपर जाकर पतला होता जाता है। मेरु पर्वत का व्यास 16000 योजन है तो इस वेधशाला के निर्माण करने वाले वराहमिहिर ने इसको 16 गज व्यास के आधार पर निर्माण कराया अर्थात एक हजार योजन बराबर 1 गज माना गया। वराहमिहिर द्वारा निर्मित ये वेधशाला (तथाकथित कुतुबमीनार) हिन्दू धर्मशास्त्रों की गणना के अनुसार 27 नक्षत्रों के आधार पर बनाई गई वेधशाला थी । जिसका विशेष आध्यात्मिक व वैज्ञानिक महत्व था । भारतवर्ष में मानसून कैसा रहेगा और फसल कैसी हो सकती है, इत्यादि महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी वह महान गणितज्ञ और खगोलविद वराहमिहिर इस वेधशाला में बैठकर अपने प्रयोगों व परीक्षणों के माध्यम से किया करते थे । विश्वप्रसिद्ध खोजी इतिहासकार स्व.पुरुषोत्तम नागेश “ओंक” ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें” में लिखा है कि यहीं पर मिहिरावली नाम का शहर उन्हीं  वराहमिहिर के नाम से बसाया गया था जिन्होंने 27 नक्षत्रों का ज्ञान संसार को दिया और आज उसे ही हम महरौली के नाम से पुकारते है । उस समय तक संसार के अधिकांश देशों के लोग यह नहीं जानते थे कि 27 नक्षत्रों का रहस्य क्या है और भारत के ज्योतिष के आधार पर इन 27 नक्षत्रों की उपयोगिता क्या है ? इस स्तम्भ के पास बने 27 मंदिर 27 नक्षत्रों से संबंधित थे। उनका विशेष महत्व था,जिनमें अलग-अलग नक्षत्रों के नाम से निर्मित मंदिर में बैठकर वराहमिहिर अपने शोधकार्य को पूर्ण करते थे । कहने का अभिप्राय है कि जिस दिन जिस नक्षत्र की जो स्थिति होती थी उस दिन उसी नक्षत्र के नाम से बने मंदिर में बैठकर वराहमिहिर अपने वैज्ञानिक निष्कर्ष निकाला करते थे। उनके निष्कर्षों से सम्राट विक्रमादित्य को अवगत कराकर जनहित में उसकी सूचना लोगों तक पहुंचाई जाती थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि इस वेधशाला की कुल सात मंजिलें थीं, और सनातन हिन्दू धर्म में सात के अंक के महत्त्व से आप सभी भलीभांति परिचित हैं सात भुवनों, सात लोकों, सात समुद्र,सात द्वीपों, सात पर्वतों, सात ऋषियों, सात नदियों अर्थात सप्तसैंधव और हर हिन्दू की शादी में होने वाले सात ही फेरे एवं उनमें सात ही वचन आदि की परम्परा केवल और केवल भारतीय धर्म शास्त्रों में ही है I

क़ुतुब मीनार की ऊंचाई कितनी है ? 
       अतः स्पष्ट हो जाता है कि इस प्राचीन वेधशाला (तथाकथित कुतुबमीनार)  के स्तंभ की 7 मंजिलों के बनाने का भी विशेष प्रयोजन व रहस्य था। इसकी सातवीं मंजिल पर इस श्रष्टि के निर्माता भगवान् विष्णु जी की प्रतिमा लगाई गई थी, जो इस बात का प्रतीक थी कि इस चराचर जगत की संचालक,प्राण वाहक व नियामक शक्ति सबसे अलग, सबसे ऊपर रहकर भी सबमें पूर्णतया व्याप्त है। सत्य तो ये है कि यह सात मंजिलें हमारे शरीर में स्थित सात चक्रों का भी प्रतीक हैं । सनातन हिन्दू धर्म के भगवान् किसी देश की सीमा से नहीं बंधे हैं वो इस संपूर्ण जगत के स्वामी हैं, वह तो सर्वनियंता, सर्वव्यापक, सर्वांतर्यामी और सर्वाधार है। कुछ स्वयंभू इतिहासकार तो यहाँ तक भी कहते हैं कि कुतुबुद्दीन ने उन 27 मंदिरों को गिराकर उनके मलबे से यह मीनार बनवाई थी, जबकि यह तथ्य कोरी मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, क्योंकि किसी भी मंदिर या भवन के मलबे से किसी स्थान को भरा तो जा सकता है किन्तु उससे कोई नई इमारत या भवन तैयार कर दिया जाये ये पूर्णतया असंभव है।
      इस प्रकार भारत की गौरवशाली परम्परा की देन इस वेधशाला सम्बन्धी स्तम्भ को कुतुबमीनार बताने के साथ ही ऐबक नाम के एक पागल सनकी के नाम करके हमारे तथाकथित इतिहासकारों ने भी अपनी पीठ स्वयं थपथपा ली । आज भी वो सभी 27 मंदिर जीर्णशीर्ण अवस्था में पड़े हुए हैं, जिन्हें पहचाना भी नहीं जा सकता । इसके अतिरिक्त पिछली सरकारों व वर्तमान भारत सरकार के द्वारा भी कोई ऐसी व्यवस्था वहां पर नहीं है जिससे इस वेधशाला का उपयोग वर्तमान समय में विज्ञान की खोजों के लिए किया जा सके,जबकि होना यही चाहिए था कि वर्तमान में भी सरकार वेधशाला की उपयोगिता को सिद्ध करने के लिए यहां पर वे सभी सुविधाएं उपलब्ध कराती जैसे कृषि संबंधी विज्ञान की खोजों को अनवरत किया जा सकता। लेकिन सरकार की ऐसी सोच को इतिहास की और वर्तमान राजनीति की धर्मनिरपेक्षता की सोच खा गई I

reference book
    ये अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे प्राचीन विज्ञान को भी छद्म धर्मनिरपेक्षता पूरी तरह लील रही है और हम शांत बैठ कर तमाशा  देख रहे हैं I हमने सत्य इतिहास को पढने व समझने का प्रयास ही नहीं किया कि तथाकथित छद्म इतिहास के अनुसार कुतुबद्दीन ऐबक ने इसका निर्माण मुस्लिम निवासियों को अज़ान देकर उठाने-बुलाने के लिए किया गया था किन्तु एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी ये आसानी से समझ सकता है कि कुतुबमीनार के ऊपर जाकर नीचे खड़े व्यक्ति को पुकारने का प्रयत्न करने वाला भी ये जानता है कि इतनी ऊंचाई पर ऊपर से चिल्लाने पर भी आवाज़ नीचे खड़े व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकती किन्तु पूर्वकालिक हिन्दू भवनों को मुस्लिम निर्माण कृति सिद्ध करने के लिए तथाकथित इतिहासकारों के द्वारा ऐसे मूर्खतापूर्ण दावे हमारे इतिहास में भरे पड़े हैं I

 
        वर्तमान भारत सरकार को इस विषय पर आगे बढ़कर विशेष कार्य करने की आवश्यकता है और महान खगोलशास्त्री वराहमिहिर के द्वारा जिन 27 नक्षत्रों के लिए कलापूर्ण परिपथ का निर्माण करवाया गया था और जिन मंदिरों को उसके द्वारा विशेष रूप से स्थापित कराया गया था उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप में ना सही लेकिन दर्शकों को बताने व समझाने के दृष्टिकोण से तो उनकी सही स्थिति इस समय स्थापित की ही जानी चाहिए, जिससे हिन्दुओं के दुर्लभ व महान   इतिहास के गौरवपूर्ण पक्ष को वर्तमान युवा पीढ़ी सही ढंग से समझ सके । इस स्तंभ की दीवारों पर जिन देवी देवताओं की मूर्तियां स्थापित की गई थीं या चित्रकारी के माध्यम से वेदों की ऋचाओं का उत्कीर्णन किया गया था, उन सब पर भी इस समय विशेष अनुसंधान व शोध करने की आवश्यकता है,साथ ही इसका छद्म नाम कुतुबमीनार के स्थान पर पुनः इसका नाम विष्णु ध्वज के नाम से ही रखा जाये,क्योंकि वराहमिहिर के द्वारा इस स्तम्भ का नाम विष्णु ध्वज /विष्णु स्तम्भ या ध्रुव स्तम्भ दिया गया था ।

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    इसी वेधशाला परिसर में खड़ा लौह स्तम्भ हमें स्वयं अपने बारे में महत्वपूर्ण जानकारी देता है, इस स्तम्भ पर संस्कृत भाषा का एक लेख लिखा हुआ है, जिसमें इस स्तम्भ को गरुड़ध्वज कहा गया है । यह लौह स्तम्भ अब से 1600 वर्ष पूर्व लगवाया गया था, परंतु इस पर आज तक जंग नहीं लगी है, जिससे हमारे हिन्दू आर्य राजाओं की वैज्ञानिक द्रष्टिकोण व ज्ञान का पता चलता है। कुछ वर्ष पहले तक प्राचीन वेधशाला (तथाकथित कुतुबमीनार) परिसर की टूटी-फूटी दीवारों में एक स्थान पर हनुमान जी का वह चित्र उत्कीर्ण था, जिसमें वह संजीवनी बूटी लेकर उड़े चले जा रहे थे। यदि कुतुबुद्दीन ऐबक के द्वारा इस स्तंभ का निर्माण कराया जाता तो यहाँ पर काफ़िर हिन्दू देवताओं के इस प्रकार के चित्रों की चित्रकारी नहीं कराई जाती । इसी प्रकार पिछले वर्ष ही मैंने स्वयं अपनी आँखों से प्राचीन वेधशाला (तथाकथित कुतुबमीनार) के पास दीवार के निकट रखी भगवान् विष्णु व नटराज शिव की पत्थर की शिला पर उत्कीर्ण खंडित कई प्रतिमायें देखी और गाइड इत्यादि से इस विषय पर चर्चा करने से जानकारी हुई कि ये मूर्तियाँ खुदाई के दौरान प्राप्त हुई हैं I
    इस पूरे परिसर का गहराई से विश्लेषण करने पर आपको नंगी आँखों से अनेकों ऐसे सबूत मिलेंगे जिनसे यह स्पष्ट होता जायेगा कि यह सारे चित्र हिन्दू देवी देवताओं या महापुरुषों के हैं। हिन्दू समाज को अब ऐसे छद्म नामधारी कालनेमियों को पूरे समाज के सामने नंगा करना ही होगा क्योंकि यदि हम ऐसा करने में पीछे रह गए तो आने वाली पीढियां हमें कभी माफ़ नहीं कर पाएंगी,अतः हम सभी इस देश के मूल निवासी वर्तमान भारत सरकार से यह मांग करते हैं कि इस ऐतिहासिक स्थल   वर्तमान गुलामी का नाम कुतुबमीनार को परिवर्तित कर भारतीय सभ्यता,संस्कृति व गौरव का प्राचीन नाम “विष्णुध्वज” रखा जाये,साथ ही इस परिसर में महान गणितज्ञ व खगोलशास्त्री वराहमिहिर की आदमकद प्रतिमा भी स्थापित कराई जाये और उनके द्वारा वैज्ञानिक रूप से स्थापित किए गए उन 27 नक्षत्रों को दिखाने वाले मंदिरों का भी पुनरुद्धार कराकर उसके पुराने वैभव को लौटाने की दिशा में भी ठोस कदम उठाये जायें अन्यथा जिस तरह हमारे पूर्वजों ने गुलामी की हीन मानसिकता में अपना जीवन काट दिया उसी प्रकार हमारी आने वाली पीढियां भी गुलामी की इस हीन भावना से उबर नहीं पायेंगी क्योंकि किसी प्रसिद्ध व्यक्ति ने कहा था कि जो संस्कृति अपना इतिहास भुला देती है उसका सर्वथा पतन होना निश्चित है I

लेखक पं.अनुराग मिश्र “अनु”
स्वतंत्र पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

Refrence link 

https://www.myindiamyglory.com/2018/03/23/qutub-minar-vedic-observatory-existing-hindu-motifs-prove/

https://www.sanskritimagazine.com/history/qutub-minar-or-dhurva-stambha/

https://www.booksfact.com/archeology/qutub-minar-dhruv-sthambh-vishnu-dhwaj.html

https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Hindu-temple_ruins_in_qutub_minar.jpg

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