स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा: सामूहिक जिम्मेदारी

Protecting healthy democratic values: A collective responsibility.
 
स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा: सामूहिक जिम्मेदारी

(डॉ. सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स) राजनीति के गलियारों में आज जो कुछ घटित हो रहा है, उसने यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता की लालसा इंसान से क्या-क्या नहीं करवा सकती। सत्ता प्राप्ति की होड़ में अनेक राजनीतिक दल इस कदर उलझ चुके हैं कि वे अपनी पुरानी, जड़ और एकांगी सोच से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं हैं। आम नागरिक जिन विषयों पर स्पष्टता, पारदर्शिता और जवाबदेही चाहता है, उन्हीं मुद्दों पर राजनीतिक नेतृत्व असमंजस में दिखाई देता है।

देश में चल रहे सुधार अभियानों के प्रति जनसमर्थन को कमजोर करने के लिए कुछ राजनीतिक दल जानबूझकर भ्रम की स्थिति पैदा कर रहे हैं। सामाजिक समरसता, राष्ट्रीय एकता और अखंडता जैसे मूलभूत विषयों को कमजोर करने के प्रयास खुलेआम देखने को मिलते हैं। यदि ऐसा न होता, तो जनाधार खो चुके वंशवादी नेता एसआईआर या वंदे मातरम् जैसे विषयों पर तथ्यों के बजाय भ्रम और झूठ के सहारे सरकार को घेरने का प्रयास नहीं करते।

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आज स्थिति यह है कि जो नेता कभी तर्क और संवाद के जरिए बहस की चुनौती देते थे, वही अपने आचरण से अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं। कई बार देखा जाता है कि पहले तो बहस का आह्वान किया जाता है, फिर चर्चा को मूल विषय से भटकाकर मनगढ़ंत प्रश्न खड़े कर दिए जाते हैं। जब उत्तर और तर्क सुनने का समय आता है, तब वही नेता सदन से बाहर चले जाते हैं और बाद में मीडिया के सामने ऐसा प्रस्तुत करते हैं मानो उन्होंने गरिमामय सदन में अपने विचारों की विजय पताका फहरा दी हो।

इस सच्चाई से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ राजनेता समय-समय पर देशविरोधी विमर्श को बढ़ावा देते हुए यह मान बैठे हैं कि देश का बौद्धिक वर्ग सब कुछ समझने में अक्षम है। यह मानसिकता किसी एक परिवार या व्यक्ति तक सीमित नहीं है। ऐसे अनेक राजनीतिक घराने हैं, जिनके उत्तराधिकारी स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते। उनका उद्देश्य आम नागरिक को न्याय दिलाना नहीं, बल्कि अपने परिवार की सत्ता, वैभव और आर्थिक हितों की रक्षा करना रह गया है।

इसी कारण ये तत्व चुनाव सुधारों का विरोध करते हैं। हालांकि जनता बार-बार उनके संकीर्ण दृष्टिकोण को उजागर कर चुकी है। अफवाहों और असत्य के जाल को तोड़कर उनके पैरों तले की जमीन खिसका चुकी है, फिर भी वे अपनी ही गलतफहमियों में जीते चले जा रहे हैं और यथार्थ से आंखें मूंदे हुए हैं।

ऐसे समय में यह अत्यंत आवश्यक हो गया है कि स्वस्थ लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए सभी राजनीतिक दल दलगत स्वार्थ से ऊपर उठें। देश को घुसपैठ और विघटनकारी ताकतों से मुक्त कराने, चुनाव सुधारों में कार्यपालिका का सहयोग करने तथा जनसामान्य के साथ मिलकर लोकतंत्र को मजबूत करने में सक्रिय भूमिका निभाएं। साथ ही, लोकतंत्र को वंशवादी विरासत समझने वाले तत्वों की इस भ्रांति को भी दूर करना होगा कि देश की सत्ता उनकी निजी संपत्ति है।लोकतंत्र तभी सशक्त रहेगा, जब उसमें जवाबदेही, पारदर्शिता और जनहित सर्वोपरि होगा।

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