समोसा-जलेबी बनाम पिज्जा-बर्गर: असली खतरा क्या है?

Samosa-Jalebi vs Pizza-Burger: What's the real danger?
 
समोसा-जलेबी बनाम पिज्जा-बर्गर: असली खतरा क्या है?

(मनोज कुमार अग्रवाल – विनायक फीचर्स)

आजकल सोशल मीडिया से लेकर स्वास्थ्य विशेषज्ञों तक, समोसा और जलेबी पर बहस तेज़ हो गई है। लेकिन क्या ये पारंपरिक भारतीय व्यंजन वाकई आधुनिक पिज्जा, बर्गर, पेस्ट्री, केक, मैगी, चाउमीन या चाइनीज़ फूड जितने हानिकारक हैं?

स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि असली खतरा पिज्जा, बर्गर, प्रोसेस्ड केक-पेस्ट्री और चाइनीज़ फास्ट फूड में छिपा है, जो चीनी, ट्रांस फैट और नमक से भरपूर होते हैं। बावजूद इसके, आज की युवा पीढ़ी इन विदेशी स्वादों की ओर अधिक आकर्षित है और परंपरागत व्यंजनों की तुलना में उनके प्रति अधिक लापरवाह भी।

चेतावनी बोर्ड अब खाने पर भी!

सरकार की योजना है कि जैसे तंबाकू उत्पादों पर चेतावनी दी जाती है, वैसे ही समोसे, जलेबी, पकौड़ी, वड़ा पाव और अन्य तले-मीठे खाद्य पदार्थों में मौजूद चीनी और तेल की मात्रा को सार्वजनिक किया जाए। देश के सभी सरकारी संस्थानों में इस आशय के सूचना बोर्ड लगाने की तैयारी चल रही है।

AIIMS नागपुर के अधिकारियों के अनुसार, यह "फूड लेबलिंग" का एक नया चरण होगा, जिससे लोगों को उनके खानपान के प्रभाव के प्रति जागरूक किया जा सकेगा।

मोटापा बन रहा है राष्ट्रीय समस्या

स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, भारत में शहरी आबादी का हर पांचवां वयस्क मोटापे की चपेट में है। वर्ष 2050 तक यह संख्या 45 करोड़ तक पहुँच सकती है। बच्चों में भी मोटापा और डायबिटीज़ के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है, जिसकी मुख्य वजह अत्यधिक प्रोसेस्ड, शर्करा और ट्रांस फैट युक्त खाद्य पदार्थों का सेवन है।

कार्डियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया की नागपुर इकाई के अध्यक्ष डॉ. अमर अमले के अनुसार, "चीनी और ट्रांस फैट अब नए तंबाकू हैं।" इस बात को देश के हर नागरिक को समझना होगा।

पीएम मोदी ने भी जताई चिंता

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में मोटापे की बढ़ती समस्या पर चिंता जताई थी। उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए यह बताया था कि 2022 में विश्वभर में 250 करोड़ लोग आवश्यकता से अधिक वजन के शिकार थे। उन्होंने तेल के कम उपयोग और संतुलित आहार की सलाह दी थी।

प्रधानमंत्री ने इस अभियान में देश की कई नामी हस्तियों को जोड़कर इसे पारिवारिक जिम्मेदारी बताया।

लेकिन क्या जलेबी और समोसा ही असली दोषी हैं?

एक सवाल यह भी उठता है कि क्या सच में समोसा-जलेबी आमजन की थाली में इतने नियमित हैं, जितने विदेशी फास्ट फूड? सच्चाई यह है कि देश के 80 करोड़ नागरिक हर महीने सरकार द्वारा वितरित राशन पर निर्भर हैं। ऐसे में उनके लिए समोसे या जलेबी साल में एक-दो बार किसी मेले या त्योहार में ही सुलभ होते हैं।

इसके उलट, मॉल और शॉपिंग सेंटरों में मिलने वाले विदेशी फास्ट फूड – पिज्जा, बर्गर, चाउमीन, केक – अक्सर प्रोसेस्ड और लंबे समय तक फ्रिज में रखे हुए होते हैं। इसके बावजूद इन पर कोई गंभीर चेतावनी नहीं दी जाती।

देसी व्यंजन या विदेशी जाल?

समोसे और जलेबी जैसे पारंपरिक व्यंजन अक्सर ताज़े और सीमित मात्रा में खाए जाते हैं। वहीं, विदेशी फास्ट फूड का सेवन बढ़ती लत और आदत में बदल चुका है। आवश्यकता इस बात की है कि नीति-निर्माता भारतीय खानपान पर सवाल उठाने के बजाय इन विदेशी खाद्य श्रृंखलाओं—जैसे मैकडॉनल्ड्स, केएफसी, डोमिनोज़, पिज़्ज़ा हट और बर्गर किंग—द्वारा परोसे जा रहे प्रोसेस्ड फूड पर सख्त लेबलिंग और चेतावनी लागू करें।

यदि सरकार वास्तव में नागरिकों के स्वास्थ्य की परवाह करती है, तो नीतियों में देसी-विदेशी खाद्य अंतर का भेदभाव खत्म होना चाहिए। जलेबी को आयुर्वेदिक लाभों के लिए भी जाना जाता है और समोसा ताजे आलू से बनाया जाता है। ऐसे में पारंपरिक खाद्य पदार्थों की छवि को गलत दिशा में प्रस्तुत करना उचित नहीं।

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