सरस्वती पुत्र प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव 'विदग्ध' : साहित्य के एक दैदीप्यमान नक्षत्र
(लेखक – सुरेश पटवा, विभूति फीचर्स)
प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ का जीवन साहित्य, शिक्षा, संस्कृति और अध्यात्म का समर्पित युग था। लगभग 99 वर्षों के अपने प्रबुद्ध जीवन में उन्होंने कला और साहित्य के विविध रूपों को जिया, संवारा और समाज के सामने प्रस्तुत किया। उनके निधन से साहित्य जगत में जो रिक्ति उत्पन्न हुई है, वह सदियों तक न भरी जा सकेगी।
वे केवल एक शिक्षाविद ही नहीं, अपितु एक जागरूक समाजशास्त्री और श्रेष्ठ चिंतक भी थे। आध्यात्मिक चेतना, सांस्कृतिक मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं से समृद्ध उनका साहित्य न केवल प्रेरणादायक था, बल्कि विचारोत्तेजक भी। दोहा, गीत, नवगीत, ग़ज़ल, शायरी से लेकर निबंध, भाषा विज्ञान और विश्लेषणात्मक लेखन तक—सभी विधाओं में उनकी लेखनी समान रूप से दक्ष रही।
उनकी रचनाओं में भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा—पाणिनि, वेदव्यास, वाल्मीकि, तुलसीदास, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद और माखनलाल चतुर्वेदी की छाया स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।
बहुआयामी योगदान
शिक्षा विभाग में उन्होंने प्राध्यापक, प्राचार्य और संचालक जैसे महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों को कुशलता से निभाया। राज्य और केंद्र सरकार की कई महत्वपूर्ण शैक्षिक समितियों में वे सलाहकार भी रहे।
सरल, सहज, परंतु ऊर्जावान और दृढ़ निश्चयी प्रो. विदग्ध न केवल एक विद्वान लेखक बल्कि प्रेरणा स्त्रोत भी थे। अनेक युवा रचनाकारों को उन्होंने प्रोत्साहित किया और मार्गदर्शन देकर साहित्य की नई पौध को सींचा।
भाषाई समृद्धि और अनुवाद-कला में विशेषज्ञता
हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और मराठी पर समान अधिकार रखने वाले विदग्ध जी अनुवाद के क्षेत्र में विशेष स्थान रखते थे। वे केवल शब्दों का नहीं, बल्कि भावों का अनुवाद करते थे—वह भी कविता में। यही गुण उन्हें एक साधारण अनुवादक से कहीं अधिक विशिष्ट बनाता है।
समर्पित रचनाकर्मी
प्रो. विदग्ध ने 24 से अधिक मौलिक पुस्तकें लिखीं। नैतिक शिक्षा, आदर्श भाषण कला, कर्मभूमि के लिए बलिदान जैसे विषयों पर लिखी उनकी पुस्तकें प्रदेश की कई प्राथमिक शालाओं और ग्राम पुस्तकालयों का हिस्सा हैं।
उनकी कविताओं में राष्ट्रभक्ति, आध्यात्मिकता और मानवीयता का संगम है। उनकी कविता “वतन को नमन” को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी सराहा था। ‘अनुगुंजन’, ‘स्वयं प्रभा’ और ‘अंतर्ध्वनि’ जैसे काव्य संग्रहों में उनके गहन चिंतन की स्पष्ट झलक मिलती है।
भगवद गीता का लोकप्रिय काव्य अनुवाद
उनके द्वारा किया गया भगवद गीता का हिंदी काव्य-रूपांतरण दो बार प्रकाशित होकर पूरी तरह बिक चुका है। कालिदास के मेघदूतम् और रघुवंश जैसे महाकाव्यों के उनके अनुवाद की सराहना कालिदास अकादमी, उज्जैन द्वारा भी की गई। मेघदूतम् पर आधारित नृत्य-नाट्य कोलकाता में मंचित किया जा चुका है।
नवाचार और शोध
उनकी शैक्षिक शोध-रचनाएं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित हैं। ‘माइक्रो टीचिंग’ और शिक्षण में नवाचार जैसे विषयों पर उनकी पुस्तकें शिक्षाशास्त्र को नई दिशा देती हैं।
समर्पण और सात्विकता
वे गांधीवादी विचारों के प्रतिबद्ध अनुयायी थे। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने सादा जीवन, उच्च विचार की विचारधारा को आत्मसात कर, उसी के अनुरूप लेखन और व्यवहार किया। उनकी पत्नी भी विदुषी शिक्षाविद थीं, जिनका साथ उन्हें परिपूर्णता की ओर ले गया।
साहित्यिक धरोहर की संरचना
1946 में उनकी पहली रचना प्रतिष्ठित पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुई थी, और उसके बाद से लेखन का यह सिलसिला कभी थमा नहीं। उनके निजी पुस्तकालय में सैकड़ों पुस्तकें हैं, और उन्होंने अनेक विद्यालयों को पुस्तकें भेंट कर ज्ञान के प्रकाश को साझा किया।

