व्यंग्य विशेष: जब व्यास पीठ पर बैठते हैं हंस और कौवे

सुधाकर आशावादी | विनायक फीचर्स ) आज के युग में एक पुरानी कहावत सटीक बैठती है—"कौआ चला हंस की चाल, अपनी भी भूल बैठा।" यानी जिसकी योग्यता न हो, वह भी उस काम में हाथ आज़माने उतर पड़ता है। यही स्थिति इन दिनों धार्मिक कथा मंचों पर भी दिखाई देती है। ऐसे मंच, जो पहले आस्था, ज्ञान और संस्कारों के केंद्र माने जाते थे, अब धंधा और दिखावा बन चुके हैं।
आजकल जो कथा वाचक हैं, उनमें बहुत से विद्वता से ज़्यादा अभिनय और श्रृंगार में पारंगत हो गए हैं। कथा अब अध्ययन और साधना का विषय नहीं, गानों की पैरोडी, नैन मटकाने और नाटकीय हरकतों का मंच बन गई है। पहले कथा कहने वाले धार्मिक ग्रंथों के ज्ञाता होते थे, जिनका उद्देश्य संस्कारों का संचार करना होता था। अब कथा कहने वाले अपनी पहचान और नाम तक बदलकर इस पेशे में उतर रहे हैं।
यह दृश्य अब इतना आम हो चुका है कि धर्म का मंच भी मनोरंजन का साधन बनता जा रहा है। कथा व्यास की पीठ, जो कभी श्रद्धा का प्रतीक थी, अब वहां मंचीय प्रस्तुति और मुनाफे का गणित हावी है। कथा से पहले एडवांस फीस, फिर भारी-भरकम डेकोरेशन, और मंच पर कौवे की तरह चिल्लाते 'हंस'। और जब मंच पर बैठकर कहते हैं, "पैसे से मोह मत करो, त्याग ही सबसे बड़ा धर्म है", तो विडंबना अपने चरम पर होती है।
विडंबना यह भी है कि ये कथावाचक जाति-धर्म की बहस में "जाति न पूछो साधु की..." का सहारा लेते हैं, लेकिन वही जब सामाजिक और सांस्कृतिक मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं, तो उनकी जाति नहीं, उनकी नीयत और नाटक सवालों के घेरे में आती है। भक्त समुदाय अब इतना भोला भी नहीं रहा। बहुत जगहों पर ऐसे कथावाचकों का बहिष्कार हुआ है—कहीं मुख पर कालिख, तो कहीं सार्वजनिक मुंडन। यह एक सामाजिक चेतावनी है कि श्रद्धा का मंच व्यंग्य का पात्र न बने।
यथार्थ यह है कि धार्मिक कथा, गीत-संगीत और अभिनय का मिश्रण बन चुका है, पर ज्ञान और आचरण का स्थान कभी नहीं भरा जा सकता। जब तक संस्कार, अध्ययन और मर्यादा को मूल न बनाया जाए, तब तक व्यास पीठ पर बैठा कोई भी व्यक्ति, धार्मिक नहीं, केवल दिखावटी पात्र ही कहलाएगा। सम्मान व्यक्ति की जाति से नहीं, उसके आचरण और ज्ञान से तय होना चाहिए। और कथा मंच पर बैठने से पहले यह देखना जरूरी है कि वह व्यक्ति व्यास पीठ के योग्य है भी या नहीं।