व्यंग्य: नमूने हर ओर हैं – कभी इधर, कभी उधर

(लेखक: सुधाकर आशावादी | विनायक फीचर्स) जिसे स्वयं अपनी गरिमा का बोध नहीं होता, वह दूसरों के सम्मान या अपमान का अर्थ क्या ही समझेगा! सार्वजनिक जीवन में ऐसे दृश्य आम हो चले हैं जहां लोग बिना किसी विशेष कारण के एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में व्यस्त रहते हैं। अपशब्दों की बौछार और गालियों का बेहिसाब इस्तेमाल मानो एक नया फैशन बन चुका है।
आजकल, राह चलते कोई व्यक्ति क्यों किसी अजनबी को अपमानित कर रहा है, इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं होता। चिकने घड़े सरीखे कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें शब्दों की मर्यादा से कोई सरोकार नहीं होता — क्योंकि शब्दों का महत्व वही समझ सकता है, जिसने भावों की गरिमा जानी हो।
राजनीति में किसी पद पर पहुंच जाना अब किसी भी मर्यादा के पालन की गारंटी नहीं देता। कई नेताओं की स्थिति यह हो गई है कि यदि उन्हें प्रतिदिन मीडिया में प्रमुखता न मिले, तो वे खुद को अप्रासंगिक मानने लगते हैं। पहचान की इस बेचैनी में वे विवादित बयान देना अपनी रणनीति बना लेते हैं। इसी क्रम में कोई व्यक्ति वीरांगनाओं की निष्ठा पर प्रश्नचिह्न लगाता है, तो कोई उनकी जातीय पहचान को निशाना बनाकर अपमानजनक टिप्पणियाँ करने लगता है — जो कानून की नजर में भी दंडनीय हैं।
सोशल मीडिया और सस्ती लोकप्रियता
सोशल मीडिया के आगमन के बाद, सस्ती लोकप्रियता पाने की होड़ और भी तेज हो गई है। अब किसी को अपशब्द बोलने या असामाजिक व्यवहार करने में शर्म नहीं आती — बल्कि यह चर्चा में बने रहने का जरिया बन चुका है।
खिलाड़ियों की उपलब्धियों को कौशल से अधिक जाति से जोड़ना, प्रशासनिक या न्यायिक पदों पर बैठे व्यक्तियों की सरनेम देखकर खुशी मनाना, इस सामाजिक सोच के संकुचित दायरे को दर्शाता है। एक पत्रकार मित्र की आदत है — अपनी बिरादरी से जुड़ी किसी भी उपलब्धि को ऐसे प्रस्तुत करते हैं मानो यह पूरे समुदाय की जीत हो।
विकृत मानसिकता या पॉलिटिकल स्टंट?
राजनीति में हार का ठीकरा व्यवस्था पर फोड़ देना, परीक्षा में असफल होने पर परीक्षक की नीयत पर सवाल उठाना — यह एक आदत बन चुकी है। ऐसे लोगों का विश्वास केवल एक बात में होता है — कि जनता की याददाश्त कमजोर है और वे किसी भी बयान को जल्द भूल जाएगी। इसलिए वे जो मर्जी आए, वह बोलने का ‘अधिकार’ समझते हैं।
अक्सर ऐसे लोग मासूमियत की चादर ओढ़े, चर्चा में बने रहने के लिए नाटकीय प्रदर्शन करते रहते हैं। लेकिन जब इनकी बयानबाजी पर कोई प्रतिक्रिया मिलती है या सार्वजनिक विरोध होता है, तो ये गिरगिट की तरह रंग बदलते हुए तुरंत क्षमा याचना पर उतर आते हैं।
समाधान क्या है?
यह एक गहन विषय है — परंतु इतना तो निश्चित है कि ऐसे "नमूनों" की मानसिक स्थिति को सामान्य नहीं माना जा सकता। मानसिक परामर्श या समाजशास्त्रीय हस्तक्षेप शायद इनकी सोच में बदलाव ला सके। जब तक समाज ऐसे व्यवहारों को मज़ाक में लेता रहेगा, तब तक ये "नमूने" यूं ही इधर-उधर दिखाई देते रहेंगे — कभी नेतागिरी में, कभी पत्रकारिता में, और कभी सोशल मीडिया की दुनिया में।