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भगवान श्रीराम के युग में स्वावलंबी खादी प्रचलित थी: डा . पुष्पेंद्र दुबे इंदौर
Self-reliant Khadi was popular in the era of Lord Shri Ram: Dr. Pushpendra Dubey Indore
Sun, 6 Apr 2025

लखनऊ डेस्क (आर एल पाण्डेय)। विनोबा विचार प्रवाह परिवार के वरिष्ठ सदस्य डॉ पुष्पेंद्र दुबे जो महाराजा रणजीतसिंह कालेज इंदौर में प्रोफेसर हैं उनका कहना है कि जब भगवान श्री राम वनवास चले गये, तब भ्राता भरत ने चौदह साल तक श्री राम की पादुका को राज्य संचालन का भार सौंप दिया और स्वयं कताई और बुनाई करते रहे। जब भगवान श्री राम अयोध्या वापस आये, तब श्री राम और भरत में अंतर करना कठिन था। दोनों की जटाजूट बढ़ी हुई थी।
इस राम भरत के मिलन का अदभुत चित्र की चर्चा बाबा विनोबा ने गीता प्रवचन में की है और वैसी ही मूर्ति बाबा को परमधाम आश्रम पवनार में खेत की खुदाई करते हुए मिली जो भरत राम मंदिर पवनार में संरक्षित है। हम सब रोज उसकी आरती करते हैं।
भगवान राम के साथ वानर सेना के प्रमुख सेनापति भी अयोध्या साथ में आये। उन्हें विदा करने का समय आया। अयोध्या में मंच सजाया गया। उस पर श्रीराम-जानकी, लक्ष्मण विराजमान हुए। श्री हनुमान जी हाथ जोडकर अपनी मुद्रा में बैठ गये। विदाई का चित्रण करते हुए श्री तुलसीदास जी लिखते हैं :
सुग्रीवहि प्रथमहि पहिराए।
भरत वसन निज हाथ बनाए।।
अर्थात भगवान श्रीराम ने सबसे पहले सुग्रीव जी को भरत के हाथों से बने हुए वस्त्र पहनाए।
ऋग्वेद का मंत्र है :
वस्त्रा पुत्राय मातरो वयंती
माताएं अपने पुत्रों के लिए वस्त्र बुनने का कार्य करती हैं। प्राचीनकाल में भारत में कताई राष्ट्रीय कार्य हुआ करता था।
वैदिक ऋषि गृत्समद ने यवतमाल जिले के कलंब गांव में बैठकर बारह साल तक कताई और बुनाई कला को सिध्द किया। उन्होंने कपास से कपडा बनाने की कला का विकास किया।
इसलिए ऋग्वेद में मंत्र आता है :
मा तंतुश्छेदी वयतो धीयम् मे।।
अर्थात हे ईश्वर! बुनाई करते समय धागा नहीं टूटना चाहिए। बाद में संशोधन करते हुए कहा 'ध्यान का तंतु' नहीं टूटना चाहिए। अंग्रेजी में कपास को कॉटन कहते हैं और इसका वानस्पतिक नाम 'गासिपियम अरबोरियम' है। यह कपास की एक जाति है जो गृत्समद ऋषि के नाम को बताती है।
भारत में विभिन्न प्रकार की जलवायु के अनुसार कपास की अनेक किस्मों का विकास हुआ। वस्त्र विद्या भारत की दुनिया को प्रमुख देन है। हरेक गांव, हरेक जनपद, कस्बे और नगर के नाम से भारत के वस्त्र पहचाने जाते थे। ढाका की मलमल को आज भी याद करते हैं। भारत अपने हाथ कते और हाथ बुने वस्त्र को निर्यात करता था और बदले में बहुमूल्य धातुएं प्राप्त करता था। यह सिलसिला अंग्रेजों के आगमन के पहले तक जारी रहा। अंग्रेजी राज में किस प्रकार देश के कुटीर और हस्त उद्योग को नष्ट किया गया, वह इतिहास दोहराने की आवश्यकता नहीं है।
महात्मा गांधी ने भारत भ्रमण के दौरान यहां की गरीबी को देखा। कपास उत्पादन करने के बावजूद वस्त्र विहीनता और अधनंगापन देखा, तब उन्होंने भारत की प्राचीन वस्त्र विद्या के पुनरुत्थान का संकल्प लिया। विनोबा लिखते हैं कि 'महात्मा गांधी न भी होते तो भारत देश आजाद हो जाता, लेकिन खादी को पुनर्जीवन नहीं मिलता।'
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा 'सत्य के प्रयोग' में 'चरखा मिला' शीर्षक से चरखा मिलने की कथा को विस्तार से लिखा है। महात्मा गांधी ने लोकमान्य तिलक के देवलोकगमन के बाद एकत्र हुए तिलक स्वराज फंड से सन 1920 में देश में बीस लाख चरखे चलाने का संकल्प जाहिर किया। असहयोग आंदोलन में खादी का उपयोग हुआ। जब आजादी आंदोलन के लिये ध्वज का प्रश्न उपस्थित हुआ, तब गांधीजी ने हाथ कते और हाथ बुने ध्वज के मध्य में चरखे को स्थान दिया। जब लोगों की जबान पर खाद शब्द चढ गया और स्वतंत्रता सेनानी खादी धारण करने लगे, तब आज से सौ साल पहले सन 1925 में गांधीजी ने अखिल भारत चरखा संघ की स्थापना की। चरखा संघ के तीन हजार से अधिक कार्यकर्ताओं को गांधीजी ने स्वयं नियुक्त किया।
महात्मा गांधी दुनिया में ऐसे पहले व्यक्ति हुए, जिन्होंने कपड़ा उद्योग में कास्ट चार्ट लागू किया। ग्राहक को पता होना चाहिए कि कपड़े की कीमत कितनी है। बीस प्रतिशत मार्जिन में व्यवस्था खर्च निकलना चाहिए। अखिल भारत चरखा संघ खादी को प्रमाणित भी करता था।
महात्मा गांधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी संत विनोबा ने खादी मजदूरी के क्षेत्र में प्रयोग किये। विनोबा ने आठ-आठ घंटे लगातार कताई की और जीवन निर्वाह पारिश्रमिक लिया। लंबे समय तक प्रयोग करने के बाद विनोबा ने गांधीजी को पत्र लिखा कि, 'बापू चार आने प्रति गुंडी मजदूरी बहुत कम है।
इसमें जीवन निर्वाह नहीं हो सकता है। इसे बढाकर आठ आने करना चाहिए। तब गांधीजी ने सूत गुण्डी की मजदूरी बढाकर आठ आने की।
चरखा संघ के नवसंस्करण में इस बात का दस्तावेजीकरण किया गया कि सन 1942 में देश के पंद्रह हजार गांवों में चार आने मजदूरी की दर से पंद्रह करोड की मजदूरी पहुंचायी गयी। महात्मा गांधी का खादी के लिए कहा गया यह वाक्य प्रसिध्द है कि खादी वस्त्र नहीं विचार है।
यह विचार भारत में ग्राम स्वराज की स्थापना के लिए आवश्यक है। यह वर्तमान व्यवस्था को बदलने की शक्ति रखता है।
सन 1947 में देश आजाद हुआ। अखिल भारत चरखा संघ का स्थान खादी तथा ग्रामोद्योग आयोग ने लिया। खादी ग्रामोद्योग क्षेत्र में आजादी के पहले से काम करने वाली खादी संस्थाओं को आयोग ने प्रमाण पत्र जारी किये। खादी ग्रामोद्योग आयोग ने अपने उद्देश्य और लक्ष्य में ग्राम स्वराज की स्थापना को स्थान दिया, परंतु सरकार ने उसे रोजगार और तत्काल राहत का कार्य मानकर आर्थिक सहायता प्रदान की। एक तरफ सरकार मिलें खडी थीं, दूसरी ओर खादी। खादी कभी भी मिल का मुकाबला नहीं कर सकती।
सरकार ने खादी क्षेत्र को सांत्वना देने के लिए रिबेट देना प्रारंभ किया। आजादी आंदोलन के तपस्वी खादी सेवकों ने तत्कालीन परिस्थितियों के चलते उसे स्वीकार किया। साथ ही इस बात पर भी निरंतर विचार होता रहा कि खादी को अपने पैरों पर खडा होना चाहिए। संत विनोबा के कहने से भारत सरकार ने स्वावलंबी कताई करने वालों के लिये मुफ्त बुनाई योजना प्रारंभ की, परंतु इसे बाद में बंद कर दिया गया। खादी क्षेत्र में स्वार्थ, लोभ और लालच ने प्रवेश किया और रिबेट आदि अनुदानों का अनैतिक तरीकों से लाभ उठाया।
खादी पूरी तरह से बाजार के हाथों का खिलौना बन गयी। नकली खादी और नकली बिल की जानकारी बाहर आने लगी। इसे देखकर सरकार के कान खडे हुए। खादी ग्रामोद्योग आयोग ने संस्थाओं को बैंक से जोड दिया। रिबेट को बंद कर मार्केटिंग डेवलपमेंट असिस्टेंस (एमएमडीए) देना शुरू किया। खादी की शुध्दता के लिये खादी मार्का लेना अनिवार्य किया। एशियाई विकास बैेंक की राशि से चुनिंदा खादी संस्थाओं को माॅडल बनाकर प्रस्तुत किया। यहां तक आते-आते 'खादी वस्त्र नहीं विचार है' वाक्य धराशायी हो गया। गांधी की खादी बाजार में बैठ गयी और भावनात्मक शोषण का हथियार बन गयी। अस्सी करोड लोगों को बिना काम के भोजन देने के विचार ने पैर जमा लिए। आजादी आंदोलन में और उसके बाद जो महिलाएं स्वाभिमान से सूत कताई कर जीवनयापन करती थीं,
अब वे महिलाएं प्रतिमाह बिना काम किये निश्चित राशि प्राप्त कर रही हैं। खेती से बचे समय में जो किसान पूरक धंधा करके अतिरिक्त आमदनी पाता था, अब उसे बिना काम के सम्मान निधि मिल रही है। आत्मनिर्भर भारत में नागरिकों को 'निकम्मा' बनाने की अनेक योजनाएं गर्व के साथ संचालित की जा रही हैं।
खादी ग्रामोद्योग आयोग ने खादी संस्थाओं की मजबूरियों, कमजोरियों को अपने पक्ष में भुनाते हुए पूरी तरह शिकंजे में जकड़ लिया है। अधिकारियों द्वारा वातानुकूलित कक्ष में बैठकर फरमान जारी किए जा रहे हैं। कताई और बुनाई की मजदूरी में वृध्दि का आदेश इसका ताजा उदाहरण है। एक तरफ देश की ढाई हजार से अधिक खादी संस्थाओं मे काम करने वाले हजारों कार्यकर्ता और लाखों कत्तिन-बुनकर हैं तो दूसरी तरफ खादी ग्रामोद्योग आयोग के मुट्ठीभर अधिकारी और कर्मचारी। इसी प्रकार की स्थिति आजादी आंदोलन के समय थी। मुट्ठीभर अंग्रेजों ने तैंतीस करोड लोगों को गुलाम बनाकर रखा था।
महात्मा गांधी ने खादी के माध्यम से देश के लोगों में आत्मविश्वास का संचार किया और मुट्ठीभर अंग्रेजों को देश से रवाना कर दिया। खादी कार्य करने वाला प्रत्येक व्यक्ति सत्याग्रही है। इस सत्याग्रह वृत्ति को समझना आवश्यक है। बात केवल कत्तिन-बुनकरों की मजदूरी वृध्दि तक सीमित नहीं है, बल्कि खादी के मूल चरित्र 'स्वावलंबन से स्वराज' को स्थापित करने की है। राम-राज्य की स्थापना के लिए खादी जगत कृत संकल्पित है। दुनिया के व्यापार युध्द से लडने में खादी ही समर्थ है।