लघुकथा: गंगा की अंतर्व्यथा

Short story: Ganga's inner turmoil
 
लघुकथा - गंगा की अंतर्व्यथा

लेखक: डॉ. सुधाकर आशावादी | प्रस्तुति: विभूति फीचर्स

प्राचीन हिमालय की गोद से निकली वह शाश्वत धारा, जिसे संसार ने गंगा के नाम से पूजा—वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन करती हुई ऋषिकेश से होते हुए हरिद्वार तक आ पहुँची। शांत लेकिन विचारमग्न—वह सोच रही थी, "अब कहाँ जाऊं?" लेकिन दिशा की परवाह किए बिना वह आगे बढ़ती गई।

जंगलों से होते हुए नदियों, घाटियों, शहरों और बस्तियों को पार करते हुए उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उसकी गति निरंतर थी, और उद्देश्य स्पष्ट—धरा को जीवन देना, लोगों की प्यास बुझाना, खेतों को उर्वर बनाना। उसने हर किसी के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया, कभी भी किसी अपेक्षा के साथ नहीं।

पर एक दिन... कुछ बदल गया।

एक क्षण को वह ठिठकी। उसने आत्मचिंतन करना शुरू किया। "मैंने तो सब कुछ दिया, लेकिन क्या बदले में मुझे कुछ मिला?" यह सवाल उसके अंतर्मन से गूंज उठा।

गौमुख से गंगासागर तक की नई यात्रा की शुरुआत हुई। मार्ग में गंगोत्री, उत्तरकाशी, ऋषिकेश, हरिद्वार, प्रयागराज, वाराणसी... सभी स्थानों पर गंगा ने देखा कि श्रद्धा अब व्यापार में बदल चुकी है।

भव्य आरतियाँ, विशाल आयोजन, चढ़ावे और चंदे—सब कुछ उसकी महिमा के नाम पर, लेकिन अंतर्मन को छलते हुए। उसके जल में अब आचमन करना कठिन था। नदियों के किनारों से सीवेज बहता आ रहा था। मृत पशु और देहें उसमें प्रवाहित की जा रही थीं। पवित्र कहे जाने वाले जल से अब दुर्गंध आने लगी थी।

उसकी आत्मा कांप उठी। वह कभी मानवता की रक्षक थी, आज स्वयं अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही थी। आस्था और आदर के नाम पर छल की इस व्यवस्था ने उसकी पवित्रता को गहरा आघात पहुँचाया था।

उसने महसूस किया कि भगीरथ का प्रयास सफल तो था, पर उसका खुद का समर्पण अब व्यर्थ लगता है। वह तट पर रुकी, सुबकी, पर किसी ने उसकी पीड़ा नहीं सुनी।

आख़िरकार, निराश होकर उसने गंगासागर की ओर जाने की बजाय उलटे पाँव लौटने का निर्णय लिया। क्योंकि वह जानती थी, उसकी अंतर्व्यथा सुनने वाला अब कोई नहीं बचा है।

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