श्रीमद् भागवत कथा बनाम विघटनकारी राजनीति: एक चिंतन

(डॉ. सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स) श्रीमद्भागवत कथा भारतीय समाज में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक समरसता की प्रतीक रही है। यह वह परंपरा है जिसमें कथावाचक की जाति, धर्म या पहचान से परे जाकर केवल वाणी की प्रभावशीलता और संदेश की पवित्रता को महत्व दिया जाता रहा है। वर्षों से इन कथाओं ने जनमानस को आत्मचिंतन, सदाचार और आध्यात्मिक चेतना की ओर प्रेरित किया है।
जब कथा बन जाए 'व्यापार'
हालांकि, बीते कुछ वर्षों में इस दिव्य परंपरा में व्यावसायिकता और दिखावटीपन की सेंध लगी है। कई कथाओं में फिल्मी गीतों पर आधारित पेरोडी, ध्वनि और प्रकाश का भौंडा प्रदर्शन तथा कथावाचकों द्वारा व्यक्तिगत प्रचार जैसे तत्व उभरने लगे हैं। इससे कथा के मूल उद्देश्य पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं और इस पवित्र विधा में धंधेबाज प्रवृत्तियों का प्रवेश हुआ है।
जब राजनीति, धंधेबाजी की ढाल बने
जब ऐसे कथावाचकों पर सामाजिक या कानूनी प्रश्न उठते हैं, तो कुछ राजनीतिक शक्तियां अपने स्वार्थ के लिए उन्हें जातीय रंग देकर समर्थन देने लगती हैं। परिणामस्वरूप, कथा के नाम पर सामाजिक विभाजन का बीज बोया जाता है। यदि कोई इन फर्जी गतिविधियों का विरोध करता है, तो उसे जातीय या धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाने लगता है।
उत्तर प्रदेश में एक हालिया उदाहरण सामने आया, जहां एक गांव में कथा के नाम पर जातीय संघर्ष की भूमिका तैयार की गई। कथित कथा आयोजकों को एक विपक्षी राजनीतिक दल का संरक्षण प्राप्त था, जिसने इस पूरे घटनाक्रम को जातीय और राजनीतिक मोड़ देने की कोशिश की।
सामाजिक समरसता पर चोट
आज जब भारत तकनीकी, अंतरराष्ट्रीय पहचान और वैश्विक सहयोग के पथ पर अग्रसर है, तब ऐसे घटनाक्रम यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या हम सामाजिक प्रगति के साथ मानसिक परिपक्वता भी अर्जित कर पा रहे हैं? जाति, धर्म और वर्ग के नाम पर समाज में दरारें डालने की प्रवृत्तियां न केवल राष्ट्र की एकता के लिए खतरा हैं, बल्कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी कुठाराघात हैं।
भारत जैसे देश में, जहां "सर्वे भवन्तु सुखिनः" की अवधारणा मूल संस्कृति रही है, वहां इस प्रकार की विघटनकारी गतिविधियां स्पष्ट रूप से राजनीतिक महत्वाकांक्षा और समाज में फूट डालने के एजेंडे का हिस्सा हैं।
समाधान: सजग नागरिकों की भूमिका
अब समय आ गया है कि शांतिप्रिय नागरिक मौन न रहें। अगर समाज को विघटन से बचाना है, तो जातीय उन्माद फैलाने वाले तत्वों, चाहे वे धार्मिक मंच से आए हों या राजनीतिक गलियारों से, उनका हर स्तर पर विरोध आवश्यक है।