सिंदूर: आस्था का प्रतीक या राजनीति का माध्यम

(डॉ. सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स)
एक चुटकी सिंदूर का मूल्य केवल वही जान सकता है, जिसने अपने दांपत्य जीवन को खोया हो। यह नारी जीवन में न सिर्फ़ सौंदर्य का प्रतीक है, बल्कि समर्पण, विश्वास और सांस्कृतिक परंपरा का भी अभिन्न हिस्सा है। किंतु आज के बदलते सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में सिंदूर भी जनभावनाओं को भुनाने का एक नया औज़ार बनता जा रहा है।
हाल ही में भारत सरकार द्वारा आतंकियों के विरुद्ध चलाए गए "ऑपरेशन सिंदूर" की सफलता के बाद से, यह प्रतीक राष्ट्रभक्ति का पर्याय भी बन गया है। सोशल मीडिया पर सिंदूर से जुड़ी चर्चाएं और प्रतिक्रियाएं यह दर्शाती हैं कि अब यह केवल एक निजी प्रतीक नहीं रह गया, बल्कि सार्वजनिक विमर्श का केंद्र बन गया है।
इसी कड़ी में एक प्रमुख राजनीतिक दल द्वारा 9 जून से शुरू किए जा रहे "घर-घर सिंदूर वितरण अभियान" ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। यह स्पष्ट नहीं है कि यह सिंदूर सभी धर्मों एवं समुदायों तक पहुंचेगा या केवल एक विशेष धार्मिक वर्ग तक ही सीमित रहेगा। न ही यह स्पष्ट है कि सिंदूर को केवल प्रतीकात्मक रूप से सौंदर्य प्रसाधनों के साथ दिया जाएगा या इसे किसी धार्मिक भावना से जोड़कर प्रस्तुत किया जाएगा।
संभवतः यह अभियान आतंकवाद पर विजय के उत्सव का हिस्सा हो सकता है, या फिर सरकार की उपलब्धियों को जनमानस तक पहुंचाने का एक राजनीतिक प्रयास। लेकिन इतना तो तय है कि सिंदूर अब पक्ष और विपक्ष की सियासत का हथियार बनता जा रहा है। एक वर्ग इसे विजय का प्रतीक मान रहा है, तो दूसरा इसे पराजय की छाया।
भारतीय समाज में सिंदूर एक समर्पित दांपत्य जीवन का प्रतीक रहा है। यह धार्मिक और पारिवारिक परंपराओं से जुड़ा हुआ है, जिसका राजनीतिक उपयोग कई लोगों को असहज करता है। आज के समय में, जब वैवाहिक रिश्तों में दरारें और विश्वास की कमी सामने आ रही हैं — जैसे पति-पत्नी के बीच हिंसक घटनाएं या आपसी विश्वास की कमी से उपजी सामाजिक विकृतियाँ — ऐसे में सिंदूर का वास्तविक महत्व क्या बचा है, यह सोचने का विषय है।
वहीं दूसरी ओर, समाज का एक बड़ा वर्ग अब सिंदूर को पुराने रीति-रिवाजों का प्रतीक मानते हुए इससे दूरी बना रहा है। लेकिन फिर भी, कई लोगों के लिए यह न केवल वैवाहिक जीवन का हिस्सा है, बल्कि श्रद्धा और भक्ति का भी प्रतीक है। सिंदूर से जुड़ी अनेक धार्मिक कथाएं और आस्थाएँ आज भी समाज में जीवित हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि एक राजनीतिक दल द्वारा हर घर में सिंदूर पहुंचाने की योजना से समाज को क्या संदेश देने की कोशिश की जा रही है? क्या यह धार्मिक प्रतीकों का राजनीतिक उपयोग नहीं है? क्या इससे आस्था का अपमान नहीं होता?
सिंदूर एक गहरी सांस्कृतिक और भावनात्मक परंपरा का प्रतीक है, जिसे राजनीतिक चश्मे से देखने की कोशिश एक संवेदनशील विषय को अनावश्यक विवाद में बदल सकती है। आस्था के प्रतीकों का उपयोग यदि जनसेवा और सामाजिक समरसता के लिए किया जाए, तो वह सराहनीय हो सकता है, लेकिन जब यही प्रतीक सियासत का साधन बन जाएं, तो उनका मूल भाव कहीं खो जाता है।