बिरसा मुंडा शहादत दिवस (9 जून) पर विशेष: आदिवासी चेतना का अमिट प्रतीक उलगुलान और भगवान बिरसा मुंडा

(कुमार कृष्णन – विभूति फीचर्स)
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कई नायकों ने संघर्ष की नई इबारत लिखी, लेकिन बिरसा मुंडा जैसे जननायक की गाथा आज भी आदिवासी जीवन और संस्कृति में जीवित है। उनकी 'उलगुलान'—एक विराट सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन—न केवल ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह था, बल्कि आदिवासी आत्मनिर्भरता, संस्कृति और संसाधनों की रक्षा का उद्घोष भी था।
महाश्वेता देवी और आदिवासी साहित्य में बिरसा की छवि
महाश्वेता देवी ने अपने उपन्यास ‘चोट्टि मुंडा और उसका तीर’ में बिरसा मुंडा के नेतृत्व को जीवंत किया है। यह रचना बताती है कि कैसे आदिवासी समाज ने स्वतंत्रता छिनने की आशंका से संघर्ष का रास्ता अपनाया और बिरसा मुंडा उनके सबसे प्रमुख नेता बनकर उभरे। बिरसा मुंडा को भारत की पहली जनआंदोलन की चिंगारी माना जाता है, जिनकी प्रेरणा आज भी आदिवासी संघर्षों का आधार बनी हुई है।
जल-जंगल-जमीन के रक्षक: बिरसा का उलगुलान
ब्रिटिश शासन के आने के बाद झारखंड की पारंपरिक व्यवस्था पर खतरा मंडराने लगा। अंग्रेजों द्वारा जल, जंगल और जमीन पर कब्ज़े की कोशिशों ने आदिवासियों को आंदोलित कर दिया। बिरसा मुंडा ने केवल ज़मीन की लड़ाई नहीं लड़ी, बल्कि तीन मुख्य उद्देश्यों के लिए उलगुलान किया—प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा, महिलाओं की सुरक्षा, और आदिवासी संस्कृति की मर्यादा को बचाना।
तलवार नहीं, तीर-कमान से लड़ा गया संग्राम
1897 से 1900 के बीच बिरसा और उनके साथियों ने अंग्रेजी सेनाओं से कई लड़ाइयाँ लड़ीं। खूंटी थाने पर हमला, तांगा नदी की लड़ाई और डोमबाड़ी पहाड़ी की जनसभा में नरसंहार जैसे घटनाक्रमों ने इस संग्राम को निर्णायक बना दिया। अंततः, 4 फरवरी 1900 को विश्वासघात के चलते बिरसा को सोते वक्त पकड़ लिया गया और 9 जून 1900 को जेल में उन्हें धीमा जहर देकर मार डाला गया।
एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चेतना
15 नवंबर 1875 को जन्मे बिरसा मुंडा ने ईसाई और हिंदू दोनों धार्मिक शिक्षा ली, परंतु उन्होंने अपने समाज की संस्कृति और परंपरा को बचाने को सर्वोपरि रखा। उन्होंने न केवल सामाजिक जागरूकता फैलाई, बल्कि आदिवासियों को संगठित कर राजनीतिक चेतना का बीज भी बोया। महज 25 साल की उम्र में उनका जीवन समाप्त हो गया, लेकिन आदिवासी जनमानस में वे आज भी "भगवान बिरसा" के रूप में पूजे जाते हैं।
समकालीन संकट और बिरसा की प्रासंगिकता
आज जब आदिवासी इलाकों में तेजी से विकास परियोजनाएं लागू की जा रही हैं, तब बिरसा की चेतावनी और संघर्ष और भी प्रासंगिक हो जाते हैं। भारत के जल, खनिज और वन संसाधनों का बड़ा हिस्सा आदिवासी क्षेत्रों में स्थित है, लेकिन इन्हीं इलाकों में सबसे ज्यादा विस्थापन और शोषण देखने को मिलता है। 1950 से 1990 के बीच 87 लाख आदिवासी विस्थापित हुए, जो कुल विस्थापितों का 40% हैं।
संविधान और आदिवासी अधिकारों की अनदेखी
संविधान की पांचवीं अनुसूची में आदिवासी क्षेत्रों की विशेष व्यवस्था की गई है, परंतु राज्यपालों द्वारा इन संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग न के बराबर होता है। जनजातीय सलाहकार परिषद की सलाह पर कानूनों की समीक्षा और संसाधनों की रक्षा का दायित्व राज्यपालों को सौंपा गया है, जिसे गंभीरता से लागू करना अब समय की माँग है।
उलगुलान आज भी ज़िंदा है
बिरसा मुंडा केवल अतीत के नायक नहीं हैं, बल्कि वर्तमान आदिवासी चेतना के प्रतीक भी हैं। आदिवासी साहित्य, लोकगीतों और आंदोलनों में आज भी उनकी गूंज सुनाई देती है। बिरसा का संघर्ष आज भी प्रेरणा देता है कि कैसे अपने अस्तित्व, संस्कृति और अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित होकर लड़ा जा सकता है।