सपा की पीडीए राजनीति में उलझन: एम-वाई समीकरण के दायरे में सीमित होती रणनीति

Confusion in SP's PDA politics: Strategy getting limited within the scope of M-Y equation
 
सपा की पीडीए राजनीति में उलझन: एम-वाई समीकरण के दायरे में सीमित होती रणनीति

– संजय सक्सेना, वरिष्ठ पत्रकार
 

2017 में सत्ता से बाहर होने के बाद समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने बार-बार राजनीतिक समीकरण बदलने की कोशिश की, लेकिन उन्हें लगातार अस्थिर समर्थन और नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हालांकि 2024 के लोकसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर 37 सीटें जीतकर बड़ा सियासी संदेश दिया, पर इस जीत के पीछे की पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) रणनीति अब खुद ही पार्टी के लिए उलझन का कारण बनती जा रही है।

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पीडीए फॉर्मूले की सफलता और सीमाएं

2024 में सपा को जो सफलता मिली, उसका श्रेय अखिलेश की पीडीए रणनीति को दिया जा रहा है। यह फॉर्मूला दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों को एकजुट करने की कोशिश थी, जो मुस्लिम-यादव (एम-वाई) समीकरण से आगे जाकर व्यापक सामाजिक समर्थन हासिल करना चाहता था। हालांकि, अखिलेश ने इस फॉर्मूले में अगड़ों को भी जोड़ने का प्रयास किया, लेकिन यह प्रयास सतही ही साबित हुआ।

जातिगत समीकरणों में दुविधा

सपा की सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती यह है कि उसका कोर वोट बैंक यादव और मुस्लिम समुदाय से आता है। यदि वह सवर्णों या गैर-ओबीसी समुदायों को रिझाने की कोशिश करते हैं, तो उनके पारंपरिक वोटर खुद को उपेक्षित महसूस कर सकते हैं। यही दुविधा हाल में इटावा में कथावाचक से जुड़ी घटना और राणा सांगा विवाद में दिखी, जहां अखिलेश की प्रतिक्रिया को एक खास जातीय एजेंडे के रूप में देखा गया।

इन घटनाओं को सपा ने 'दलित बनाम ठाकुर' या 'यादव बनाम ब्राह्मण' के रूप में पेश किया, जिससे ब्राह्मण और ठाकुर समुदायों में नाराजगी और गहरी हुई। यही विरोधाभास सपा की जातीय संतुलन साधने की रणनीति को जटिल बनाता है।

2027 के लक्ष्य और संभावित संकट

अखिलेश यादव ने 2027 के लिए "मिशन 300" का लक्ष्य रखा है, लेकिन अगर ब्राह्मण और ठाकुर जैसे सवर्ण समुदायों में असंतोष बना रहा, तो यह महत्वाकांक्षी योजना मुश्किल में पड़ सकती है। बीजेपी लगातार यह नैरेटिव बना रही है कि सपा केवल एम-वाई गठजोड़ की पार्टी है, और बाकी सामाजिक वर्गों की उपेक्षा करती है।

यह आरोप केवल सियासी बयानबाजी नहीं रह गए हैं — लखनऊ में अखिलेश यादव के जन्मदिन पर लगे पोस्टरों में यह साफ दिखा, जिनमें बीजेपी कार्यकर्ताओं ने उन्हें ‘वोट बैंक की राजनीति करने वाला नेता’ बताया।

दलितों और गैर-यादव पिछड़ों की भूमिका

हालांकि सपा ने दलित वोटरों को जोड़ने का प्रयास किया है, लेकिन अब तक इसका असर सीमित रहा है। बसपा की कमजोरी ने सपा को थोड़ा फायदा जरूर पहुंचाया, लेकिन दलितों में अखिलेश की स्वीकार्यता अभी पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाई है। इसी तरह गैर-यादव पिछड़े वर्ग अभी भी भाजपा के साथ मजबूती से जुड़े हुए हैं।

पीडीए में "पी" यानी पिछड़ा वर्ग, सपा के लिए केवल यादवों तक ही सीमित रह गया है। जबकि भाजपा ने अपनी सामाजिक इंजीनियरिंग से न सिर्फ गैर-यादव ओबीसी को जोड़े रखा है, बल्कि सवर्णों और दलितों को भी साधे रखा है।

सवर्णों को जोड़ने की असफल कोशिश

सपा ने हाल के वर्षों में ब्राह्मण सम्मेलनों, ठाकुर नेताओं को तवज्जो देने जैसे कई प्रयास किए, लेकिन वे दिखावटी माने गए। कारण यही रहा कि जब-जब सवर्ण समाज से जुड़ी किसी घटना पर सपा की प्रतिक्रिया आई, उसमें यादव या मुस्लिम वोट बैंक के नजरिए की झलक अधिक दिखी, संतुलन नहीं।

छवि की चुनौती और बीजेपी का नैरेटिव

बीजेपी लगातार सपा को ‘माफिया समर्थक’ और ‘अराजक तत्वों की पार्टी’ के रूप में पेश करने की कोशिश करती रही है। 2024 के चुनावी नतीजों ने इस नैरेटिव को थोड़ी चुनौती जरूर दी, लेकिन इटावा प्रकरण जैसे विवाद सपा को पुरानी छवि में फिर से ढकेलने का काम कर रहे हैं।

निष्कर्ष: एकजुटता की बजाय उलझन

साफ है कि पीडीए को मजबूत करने की कोशिश में सपा एक नई उलझन में फंस गई है। मुसलमान (एम) और यादव (वाई) समुदायों के सहारे सपा ने अब तक की रणनीति बनाई, लेकिन दलित और गैर-यादव पिछड़ों के बिना यह गठबंधन अधूरा है।

अगर सपा सवर्णों को लुभाने की कोशिश करती है, तो उसे अपने कोर वोट बैंक के नाराज होने का डर रहता है। वहीं यदि सवर्णों की उपेक्षा की जाती है, तो बीजेपी इसका भरपूर राजनीतिक लाभ उठा सकती है।

2027 का चुनाव अखिलेश यादव के लिए निर्णायक साबित हो सकता है — सवाल यह है कि वह पीडीए की ताकत को बनाए रखते हुए एम-वाई की सीमाओं को कैसे लांघेंगे? अगर यह संतुलन नहीं साधा गया, तो फिर 6-7 प्रतिशत यादव और 18 प्रतिशत मुस्लिम वोटों के सहारे सत्ता की सीढ़ी चढ़ना आसान नहीं होगा।

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