सुप्रीम कोर्ट की अति सक्रियता बनाम राष्ट्रपति के संवैधानिक प्रश्न: एक संवैधानिक विमर्श

Constitutional Question of Supreme Court Vs. Activation vs. President: A constitutional discussion
 
सुप्रीम कोर्ट की अति सक्रियता बनाम राष्ट्रपति के संवैधानिक प्रश्न: एक संवैधानिक विमर्श

इंजी. अतिवीर जैन 'पराग' | विनायक फीचर्स

नई दिल्ली। तमिलनाडु में भेजे गए विधेयकों को राज्यपाल द्वारा मंजूरी न दिए जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा सीधे उन्हें पारित कर कानून बनाने के निर्णय ने संवैधानिक सीमाओं और संस्थागत संतुलन पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। अदालत के इस हस्तक्षेप को अनेक विशेषज्ञ संवैधानिक संस्थाओं के दायरे से बाहर की 'जुडिशियल एक्टिविज़्म' मान रहे हैं।

न्यायपालिका या कार्यपालिका? सीमाओं का धुंधलापन

संविधान के अनुसार, संसद द्वारा पारित विधेयक को अंतिम स्वीकृति के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल के पास भेजा जाता है, न कि न्यायपालिका के पास। सुप्रीम कोर्ट का इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर विधेयक को सीधे मंजूरी देना कई संवैधानिक जानकारों को राष्ट्रपति की गरिमा और अधिकारों का हनन प्रतीत हुआ है।

इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों पर रोक लगाई थी, जिसे उसी प्रकार का संवैधानिक अतिक्रमण माना गया था।

राष्ट्रपति के 14 सवाल: न्यायपालिका के विवेक की परीक्षा

इन घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में, राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए 14 प्रश्न, भारतीय लोकतंत्र में एक नई बहस की शुरुआत करते हैं। राष्ट्रपति ने न्यायपालिका से इन संवैधानिक बिंदुओं पर स्पष्ट और औचित्यपूर्ण जवाब मांगे हैं। यह पहली बार हो रहा है कि भारत के सर्वोच्च संवैधानिक पद से न्यायपालिका की भूमिका पर सार्वजनिक प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं।

यह विडंबना ही है कि जहाँ सुप्रीम कोर्ट राज्यों को समयसीमा में निर्णय लेने का आदेश दे रहा है, वहीं उसके स्वयं के पास 70,000 से अधिक मामले वर्षों से लंबित हैं।

राज्यों की भूमिका और संवैधानिक विचलन


राज्य सरकारें, बहुमत के बल पर, कई बार ऐसे विधेयक पारित कर देती हैं जो संविधान की भावना के विपरीत होते हैं। उदाहरण के तौर पर, हरियाणा और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने राज्यपाल से कुलाधिपति के अधिकार छीनकर खुद कुलपति नियुक्त करने का प्रयास किया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस संवैधानिक उल्लंघन पर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं दी, जो अपने आप में चिंताजनक है।

 न्यायपालिका में कथित भ्रष्टाचार: बढ़ता अविश्वास


कुछ मीडिया रिपोर्ट्स और जन चर्चाओं में यह भी आरोप लगे हैं कि कुछ जजों और वकीलों के बीच साठगांठ बन चुकी है, जहां मुकदमे ‘मनचाहे जज’ के समक्ष सूचीबद्ध कराए जाते हैं। एक वरिष्ठ जज के पास बड़ी मात्रा में नगदी मिलने की खबरें आने के बावजूद कोई एफआईआर दर्ज नहीं हुई, न ही गिरफ्तारी की गई। यह मौन, न्यायपालिका की पारदर्शिता और निष्पक्षता पर सवाल खड़े करता है।

वर्षों से लटके करोड़ों मुकदमे: जनता का न्याय से मोहभंग


देशभर में करोड़ों मामले वर्षों से लंबित हैं। कई मामलों में तो पीढ़ियाँ गुजर जाती हैं, पर न्याय नहीं मिलता। जनता को वकीलों और पेशकारों के भ्रष्ट व्यवहार से भी गुजरना पड़ता है, जो न्याय के मूलभूत सिद्धांतों का अपमान है।

ऐसे परिदृश्य में यदि उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च संवैधानिक पद को निर्देश देने लगे, तो यह एक संवैधानिक असंतुलन की ओर इशारा करता है।

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