दिवास्वप्न’ के आलोक में वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य

It is a pleasure to see young people coming forward in literature: Dinesh Prabhat
 
It is a pleasure to see young people coming forward in literature: Dinesh Prabhat
(प्रमोद दीक्षित मलय – विनायक फीचर्स)
शिक्षा-साहित्य में ऐसी पुस्तकों की संख्या बहुत कम है, जो शिक्षक, विद्यार्थी, विद्यालय और समुदाय के आपसी संबंधों पर गहन चर्चा करते हुए बच्चों को समझने और उन्हें सहज, स्वाभाविक ढंग से सीखने के अवसर प्रदान करने का मार्ग सुझाती हों। गिजुभाई बधेका की अमर कृति ‘दिवास्वप्न’ ऐसी ही प्रेरक और प्रासंगिक पुस्तक है।
अफ्रीका से 1909 में भारत लौटकर गिजुभाई ने वकालत आरम्भ की, किंतु अपने पुत्र की शिक्षा के लिए आनंदमय वातावरण वाला विद्यालय न मिलने पर वे चिंतित हुए। अधिकांश विद्यालयों में बच्चों पर भय, अनुशासन और दंड आधारित शिक्षा थोपी जा रही थी। इसी ने गिजुभाई को विश्व की नवीन शिक्षण-पद्धतियों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। मारिया मोंटेसरी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने ऐसे विद्यालय की कल्पना की—जहाँ बच्चों के मस्तिष्क, हृदय और हाथ—तीनों के विकास को महत्व दिया जाए।

दक्षिणामूर्ति बालमंदिर: एक प्रयोग जो इतिहास बना

1918 में गिजुभाई ने अपने साथियों के सहयोग से दक्षिणामूर्ति बालमंदिर की स्थापना की। अध्यापन के दौरान अर्जित अनुभवों का सार उन्होंने ‘दिवास्वप्न’ के रूप में लोक को समर्पित किया। लगभग एक शताब्दी पूर्व, विद्यालय को “आनंदघर” के रूप में देखने की उनकी कल्पना केवल स्वप्न नहीं थी—उन्होंने रुकावटों, विरोध और असंख्य चुनौतियों के बावजूद आनंद-आधारित शिक्षण का सफल मॉडल खड़ा किया।
जब गिजुभाई अपने प्रयोगों की अनुमति लेने एक अधिकारी के पास गए, तो उनका उत्तर आज भी उतना ही प्रासंगिक लगता है—
“जैसे चाहो प्रयोग करो, पर बारहवें महीने परीक्षा सामने होगी और तुम्हारा आकलन उसी से होगा।”
दुःख की बात है कि आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था अंक आधारित परीक्षा प्रणाली की जंजीरों में जकड़ी है। यह प्रणाली बच्चों की मौलिकता, कल्पनाशक्ति और अनुभव-आधारित ज्ञान को व्यक्त करने में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। उत्तरपुस्तिकाएँ तथ्यों की पुनरावृत्ति पर आँकी जाती हैं, न कि बच्चे की समझ पर। इसीलिए रटन्त प्रवृत्ति पनप रही है और तर्क, अवलोकन, विश्लेषण व निष्कर्ष निकालने की क्षमताएँ विकसित नहीं हो पा रहीं।

शिक्षक और कक्षाओं की वास्तविकता

बच्चे उत्साह और ऊर्जा से भरे होते हैं। ऐसे में शिक्षक को धैर्यवान और सृजनशील बने रहना पड़ता है। गिजुभाई लिखते हैं—
“मेरे ये नोट्स बेकार हैं। घर बैठकर अनुमान लगाना आसान था, पर व्यवहार में यह तो लोहे के चने चबाने जैसा है।”
कक्षाओं का माहौल आज भी अधिकांशतः पारंपरिक है। छुट्टी की घंटी बजते ही बच्चों की खुशी एक प्रकार की मुक्ति का संकेत देती है—जैसे वे दबाव, ऊब और अनुशासन की बेड़ियों से आज़ाद हो रहे हों। अनेक शिक्षा आयोगों की सिफारिशों के बाद भी विद्यालयों का वातावरण सहज, सामंजस्यपूर्ण और आनंददायी नहीं बन पाया है।
गिजुभाई बच्चों को समझने के चार सरल लेकिन प्रभावी सूत्र बताते हैं—
कहानी, कविता, खेल और भ्रमण।

शिक्षा में सीमाएँ और वास्तविक चुनौतियाँ

शिक्षक सरकारी दिशानिर्देशों और पाठ्यक्रम पूरा करने के दबाव में बँधे रहते हैं। बच्चों ने क्या समझा, उन्हें क्या अवसर मिले, वे सीख को जीवन से जोड़ पा रहे हैं या नहीं—इन महत्वपूर्ण सवालों पर चर्चा का समय ही नहीं मिलता।
गैर-शैक्षिक कार्यों में शिक्षकों की ड्यूटी लगना एक अलग समस्या है, जो उनकी सृजनात्मकता और स्वतंत्रता को सीमित करती है।
शैक्षिक हानि भविष्य में सामाजिक और राष्ट्रीय हानि में परिवर्तित होने वाली है, परंतु इसकी गंभीरता अभी भी व्यापक रूप से समझी नहीं जा रही है।

पुस्तकालय संस्कृति और अभिभावक सहभागिता

गिजुभाई पढ़ने की संस्कृति के प्रबल समर्थक थे। वे सुझाव देते हैं कि—
बच्चों से हर वर्ष नई पाठ्यपुस्तकें खरीदवाने के बजाय, उसी राशि से विद्यालय में पुस्तकालय स्थापित किया जाए।
वर्षांत में पुस्तकें जमा कराकर नए सत्र में बच्चों को बाँटने से विभाग पर बोझ भी कम होगा और पर्यावरण-हित भी सुरक्षित रहेगा।
अभिभावकों की सहभागिता बढ़ाने के लिए उन्होंने सभा आयोजित की, पर 40 निमंत्रणों के बावजूद केवल 7 अभिभावक उपस्थित हुए—यह समस्या आज भी जस की तस बनी हुई है।
सरकारी विद्यालयों में अधिकांश बच्चे पहली पीढ़ी के शिक्षित हैं; अभिभावक मजदूरी या खेती से जुड़े होने के कारण विद्यालय की गतिविधियों में शामिल नहीं हो पाते।

समापन

विद्यालयों की वर्तमान स्थिति सुधारने के लिए रचनाधर्मी शिक्षक लगातार प्रयत्नशील हैं। उनके सामने चुनौतियाँ हैं, लेकिन ‘दिवास्वप्न’ उनके लिए प्रेरणा और मार्गदर्शन का स्रोत बन सकती है। यदि हम गिजुभाई द्वारा सुझाए रास्ते पर चल सकें तो विद्यालयों का वातावरण निश्चित ही सकारात्मक, सृजनशील और बच्चों के लिए आनंदमय बन सकता है।
(लेखक: शैक्षिक संवाद मंच, उत्तर प्रदेश के संस्थापक)
(विनायक फीचर्स)

Tags