हिंदी सिनेमा का पतन: एक गंभीर चिंतन
The Decline of Hindi Cinema: A Serious Reflection
Sat, 19 Jul 2025
(पंकज शर्मा 'तरुण' – विभूति फीचर्स)
एक समय था, जब रेडियो का जादू सिर चढ़कर बोलता था। बात है 1980 के दशक की, जब रेडियो सीलोन कोलंबो से हिंदी फिल्मों के गीतों की पहली झलक सुनाई जाती थी। अमीन सयानी, मनोहर महाजन और तबस्सुम जैसे चर्चित उद्घोषक फिल्मों और गीतों का ऐसा आकर्षक प्रचार करते थे कि लोग रेडियो से चिपक जाते थे। सुबह 8 बजे शुरू होने वाले फरमाइशी कार्यक्रमों में भारत ही नहीं, पूरे दक्षिण एशिया के श्रोता अपनी पसंद के गीत सुनते थे।

बिनाका गीतमाला की लोकप्रियता ऐसी थी कि जब उसका प्रसारण होता था, तब सड़कों से लेकर बाजार तक सुनसान हो जाते थे – जैसे बाद में रामायण और महाभारत के प्रसारण के समय टेलीविजन के सामने लोगों की भीड़ लगती थी। उस दौर में रेडियो की तरंगें कभी-कभी कमजोर हो जाती थीं, लेकिन लोगों का उत्साह कम नहीं होता था।
उस समय फिल्म से जुड़ा हर व्यक्ति – अभिनेता, अभिनेत्री, गायक, संगीतकार – अपने कार्य को पूरी निष्ठा और समर्पण के साथ करता था। शायद यही कारण है कि उस युग के गीत आज भी श्रोताओं के दिलों में बसे हुए हैं – सदाबहार और आत्मा को छू लेने वाले।
लेकिन जब हम आज की हिंदी फिल्मों की ओर देखते हैं, तो निराशा हाथ लगती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मौलिक लेखन, असली धुनें और भावनात्मक कहानियां कहीं खो गई हैं। आज की अधिकांश फिल्मों में पुराने लोकप्रिय गीतों को नए संस्करण में पेश किया जा रहा है – जैसे लैला मैं लैला, यम्मा यम्मा, झुमका गिरा रे, कांटा लगा – और इनका प्रयोग केवल तात्कालिक आकर्षण के लिए हो रहा है।
आजकल के गीतों में अगर "टायर वाला", "डिब्बे वाला" या "गांजे वाला" जैसे शब्द सुनाई दें, तो स्पष्ट हो जाता है कि भावनात्मक और साहित्यिक गहराई गायब हो चुकी है। कहानियां पहले भी प्रेरित होती थीं, पर उनमें रचनात्मकता होती थी। आज की फिल्में केवल ‘कॉपी-पेस्ट’ का उदाहरण बनती जा रही हैं।
हिंदी गीतों और फिल्मों में जो गिरावट आई है, उसका बड़ा कारण यह भी है कि निर्माता-निर्देशक लेखन और संगीत के लिए गंभीर बजट नहीं रखते। वे ऐसे लोगों से काम करवा रहे हैं जो या तो मुफ्त में या बेहद कम मेहनताने में गीत और स्क्रिप्ट लिख देते हैं।
यही वजह है कि आज के श्रेष्ठ लेखक, संगीतकार और कलाकार दक्षिण भारतीय फिल्मों की ओर रुख कर चुके हैं – जहां उन्हें न केवल रचनात्मक सम्मान मिल रहा है, बल्कि आर्थिक रूप से भी वे संतुष्ट हैं।
बॉलीवुड को अब आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। यदि हिंदी सिनेमा को उसकी खोई हुई प्रतिष्ठा और गुणवत्ता वापस चाहिए, तो उसे अपनी मूल रचनात्मकता, भाषाई सौंदर्य और श्रोताओं की समझदारी का सम्मान करना होगा। अन्यथा यह खतरा बना रहेगा कि बॉलीवुड "वुड पीस" बनकर कहीं सिनेमा के विशाल समुद्र में खो न जाए।
