जीवन के रंगमंच पर संवादों की गिरती गरिमा

(लेखक: सुधाकर आशावादी | प्रस्तुति: विनायक फीचर्स)
जीवन एक रंगमंच है, जहां प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी भूमिका निभाता है—कोई नायक बनता है, तो कोई खलनायक। मंच पर पर्दा उठता है, गिरता है, और पात्रों की बारी-बारी से एंट्री होती है। चाहे रंगमंच हो या वास्तविक जीवन, विचारों की अभिव्यक्ति—यानी संवाद—इस मंच का सबसे प्रभावशाली साधन होती है।
सिनेमा जगत में संवादों का महत्व जगजाहिर है। फ़िल्में चाहे जितनी सशक्त कहानी या अभिनय से सजी हों, उनकी असली पहचान कई बार उन संवादों से होती है जो दर्शकों के दिलों में घर कर जाते हैं। "शोले" के गब्बर सिंह के संवाद — “कितने आदमी थे?”, या राजकुमार, शत्रुघ्न सिन्हा, बलराज साहनी और अमिताभ बच्चन जैसे कलाकारों की विशिष्ट संवाद अदायगी ने फिल्मों को अमर बना दिया।
इसी तरह, राजनीतिक और सामाजिक जीवन में भी संवादों की ताकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का ऐतिहासिक कथन—“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा”—ने स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के मनोबल को नई ऊंचाइयां दीं। संवाद, केवल शब्द नहीं होते, वे विचार और ऊर्जा का प्रवाह होते हैं, जो किसी के व्यक्तित्व की पहचान बना सकते हैं।
लेकिन आज की राजनीति में संवादों का स्वरूप विकृत हो चुका है। अब संवादों में वैचारिक गहराई नहीं, बल्कि तात्कालिक सनसनी की तलाश होती है। आज अक्सर ऐसा लगता है कि संवादों को सोच-समझकर नहीं, बल्कि केवल चर्चा में आने के लिए बोला जाता है। गांधीजी जैसे महापुरुषों को लेकर विवादित बयान देकर सुर्खियां बटोरने का जो सिलसिला शुरू हुआ था, वह अब एक आम चलन बन चुका है।
'बिगड़े बोल' अब राजनीतिक विमर्श का अहम हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे बयान जानबूझकर दिए जाते हैं, ताकि विरोध हो, प्रदर्शन हो, और मीडिया में जगह मिले। इससे नेताओं को मंच और माइक मिल जाता है, और उनका चेहरा चर्चा का केंद्र बन जाता है।
चाहे संसद के गलियारे हों या कोई सार्वजनिक मंच, लोग इन विवादित संवादों को सुनने को उत्सुक रहते हैं। जैसे ही कोई विवादास्पद बयान सामने आता है, सोशल मीडिया से लेकर टीवी डिबेट्स तक बहसों की बाढ़ आ जाती है। विशेषज्ञ बनने की होड़ में वे लोग भी कूद पड़ते हैं जिन्हें विषय की बुनियादी जानकारी भी नहीं होती।
ऐसे माहौल में संवाद का उद्देश्य अब संवाद स्थापित करना नहीं, बल्कि ध्यान खींचना हो गया है। जब लोकप्रियता का पैमाना जिम्मेदार वक्तव्यों के बजाय विवादित बयानों पर टिक जाए, तब यह विचार करना ज़रूरी हो जाता है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं।
क्या यह समय नहीं है कि हम संवादों को फिर से उनकी गरिमा लौटाएं—ऐसे संवाद, जो प्रेरणा दें, जो समाज को जोड़ें, न कि तोड़ें? क्योंकि जीवन के इस मंच पर असली कलाकार वही है, जो शब्दों से संबंध बनाता है, न कि विवाद।