माटी का दीपक और अंधकार का संवाद
Sun, 19 Oct 2025

(डॉ. मनमोहन सिंह – विभूति फीचर्स)
प्राचीन काल में जब सूर्य डूब जाता था, तो संसार गहरे अंधकार में डूब जाता था। चांदनी रातें भी विरल ही थीं। तब मनुष्य ने पहली बार जंगल में जलती आग से जाना कि रात को भी उजाला संभव है। धीरे-धीरे लकड़ियाँ जलाकर रोशनी करने की परंपरा बनी। समय के साथ पशुओं की चर्बी, तेल और फिर मिट्टी के दीपक आए—जिन्होंने मानव जीवन में प्रकाश की संस्कृति जगा दी।
लोग दीपक को ईश्वर का स्वरूप मानकर प्रार्थना करने लगे—
“भो दीप त्वं ब्रह्म रूप अंधकार निवारकः।”
दीपक अब केवल रोशनी नहीं रहा, वह आशा, श्रद्धा और ज्ञान का प्रतीक बन गया।
काल के साथ मनुष्य ने प्रकाश को समझा और उसे साधा। तेल-बाती से आगे बढ़ते हुए उसने मोमबत्ती, लालटेन, गैस लैंप और अंततः बिजली की खोज की। इस बिजली ने संसार को नई दिशा दी। इलेक्ट्रॉनिक युग ने प्रकाश को रंगों की नृत्यशाला में बदल दिया—नियॉन लाइट्स और झालरों की चमक ने हर दीपावली को रंगीन बना दिया।
पर मानव की यात्रा यहीं नहीं रुकी। प्रकाश की किरणों को विभाजित कर उसने एक्स-रे, लेज़र और इन्फ्रा रेड जैसी अद्भुत खोजें कीं। अब यही किरणें शरीर के भीतर की दुनिया देखती हैं और अंतरिक्ष की गहराइयों तक पहुंचती हैं। मनुष्य ने तारों, ग्रहों और महासागरों के रहस्यों को पढ़ना शुरू कर दिया।
लेकिन जब यही ऊर्जा विनाशक बनी—तो हिरोशिमा और नागासाकी जैसे त्रासद दृश्य सामने आए। विज्ञान के तेज ने जब संयम खोया, तो सभ्यता राख में बदल गई। प्रकाश अब केवल ज्ञान का प्रतीक नहीं रहा, वह शक्ति और खतरे—दोनों का संदेश देने लगा।
फिर भी, भारतीय संस्कृति में दीपक की आत्मा आज भी जीवित है। तुलसी के चौरे पर जलता दिया, आंगन में रखा अखंड दीप, नदी में बहता दीपदान या मंदिर में प्रज्वलित आरती का दीप—ये सभी हमारे मन की भावनाओं के प्रतीक हैं। ये केवल मिट्टी, तेल और बाती नहीं हैं; ये संकल्प, श्रद्धा और शुभेच्छा के जीवंत प्रतीक हैं।
“परम प्रकाश रूप दिन राती,
नहिं कछु चहिअ दिया घृत बाती।”
रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कहा—जब मन में भक्ति का दीप जलता है, तब मोह, लोभ, अज्ञान और अहंकार स्वतः नष्ट हो जाते हैं।
पर यह दीप जलाना सरल नहीं—इसके लिए आत्मसंयम, समता और ज्ञान की बाती चाहिए। तभी भीतर का अंधकार मिटता है और आत्मा आलोकित होती है।
ज्ञान का दीप तभी स्थिर रह सकता है जब मन के झोंके उसे न बुझा दें।
जैसे—
- “जब सो प्रभंजन उर गृह जाई,
- तबहि दीप विज्ञान बुझाई।”
आज दीपावली है। चारों ओर दीपों की पंक्तियाँ हैं, जगमगाती झालरें हैं, पर भीतर का अंधकार अब भी गहराता जा रहा है—अज्ञान, गरीबी, और असमानता का अंधकार।
हमारे देश में जहां धन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती है, वहीं अन्नदाताओं की आत्महत्याएँ हमें भीतर तक झकझोरती हैं।
बाजार की चमक-दमक में आज इंसान उधार की खुशियों में जी रहा है।
कर्ज में ली मुस्कानें और किश्तों में बँटी सम्पन्नता ने समाज को खोखला बना दिया है।
“रात दीप धर हंस रही,
मोती झरते थाल।
जगमग रूप निहारता,
समय खड़ा कंगाल।”
शायद यही हमारे समय की सच्चाई है—दिये जल रहे हैं, पर उनके नीचे कर्ज और उदासी का साया है।
फिर भी, आशा की किरण जलती है—
“माटी का दीपक जले अंधकार के बीच,
किरणें दोनों हाथ से सपने रही उलीच।”
यही दीप हमारी आस्था, उम्मीद और आत्मबल का प्रतीक है—जो बताता है कि हर अंधकार के बीच एक दीया जरूर जलता है।
