फोन के चार्जर में उलझी साहित्य की गरिमा – आज का डिजिटल यथार्थ

The dignity of literature entangled in the phone charger - today's digital reality
 
फोन के चार्जर में उलझी साहित्य की गरिमा – आज का डिजिटल यथार्थ

लेखक: विवेक रंजन श्रीवास्तव | प्रस्तुति: विभूति फीचर्स)

कभी एक दौर था जब साहित्य न केवल लिखा जाता था, बल्कि जिया भी जाता था। पाठक नई रचनाओं की प्रतीक्षा करते थे, लेखक अपने लेखन के प्रति समर्पित रहते थे, और आलोचना को एक सकारात्मक संकेत माना जाता था। लेकिन डिजिटल युग में ये तस्वीर अब पूरी तरह बदल चुकी है। आज का लेखक पाठक की तलाश में है, जबकि पाठक सोशल मीडिया की ‘रील्स’ में खो गए हैं।

वर्तमान में साहित्यिक रचनाएं सोशल मीडिया के किसी कोने में ‘सीन बाय’ का दर्जा लेकर गुमनाम सी पड़ी हैं। रचनाएं साझा की जा रही हैं, लेकिन यह जानना कठिन है कि उन्हें वास्तव में पढ़ा कौन रहा है। व्हाट्सएप समूहों में सैकड़ों सदस्य होते हैं, लेकिन सक्रिय पाठकों की संख्या गिनी-चुनी होती है। अब लेखकों का फोकस रचना की गुणवत्ता पर नहीं, बल्कि पोस्ट पर आए कमेंट्स और रिएक्शन्स पर होता है।

कई साहित्यिक समूहों में अब कमेंट्स एक तरह की ‘डिजिटल औपचारिकता’ बन चुके हैं। कुछ लोग तो टिप्पणियों को ही एक ‘आर्ट फॉर्म’ की तरह निभाते हैं — बिना पढ़े ही ‘अद्भुत’, ‘वाह’, ‘बहुत सुंदर प्रस्तुति’ जैसे कॉपी-पेस्ट शब्दों से अपनी उपस्थिति दर्ज करवा देते हैं। और अगर समय न हो तो इमोजी — एक फूल, एक दिल, या हाथ जोड़ते हुए इमोजी — काफी समझा जाता है।

अब लेखक अपनी रचना के साथ ‘ट्रेलर’ भी देने लगे हैं — “यह कहानी मैंने उस शाम लिखी जब चाय पीते हुए बारिश देख रहा था…”। और पाठक बिना कहानी पढ़े ही कह उठते हैं — “वाह! चाय से जुड़ी कहानियाँ दिल को छू जाती हैं।” रचना की आत्मा अब चाय की चुस्की में विलीन हो चुकी है।

कुछ समूहों में ‘गोपनीय समीक्षा सत्र’ भी आयोजित होते हैं, जिनमें लेखक का नाम छुपा दिया जाता है, ताकि निष्पक्ष टिप्पणियां मिलें। लेकिन इससे पहले कि कोई पाठक टिप्पणी करे, इनबॉक्स में संदेश आता है — “भाई, मेरी रचना है, कुछ अच्छा लिख देना।” ऐसे में निष्पक्षता की उम्मीद करना भी एक मज़ाक लगता है।

जब पोस्ट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती, तो एडमिन ब्रॉडकास्ट संदेश भेजते हैं — “साथियों, आपकी प्रतिक्रिया से ही समूह की गरिमा बनी रहती है, कृपया समय निकालें।” साहित्यिक मूल्य अब समूह की ‘टीआरपी’ पर निर्भर हो गए हैं।

इस दौर में ‘वाह-वाह’ करना एक अनिवार्य सामाजिक व्यवहार बन गया है। क्या यह सही मायनों में सराहना है, या केवल एक सांकेतिक जिम्मेदारी? अब लेखक रचना की गुणवत्ता से ज्यादा चिंतित हैं कि कितने लोगों ने ‘रिएक्ट’ किया।

आज साहित्य एक सामूहिक अभिनय बन गया है — लेखक लिखते हैं, पाठक ‘पढ़ने’ का अभिनय करते हैं, और एडमिन आंकड़ों की पूजा में लगे रहते हैं। साहित्य का मूल उद्देश्य — भावनाएं, विचार और गहराई — ‘कमेंट काउंट’ के पीछे दब गया है।

शायद यही आधुनिक साहित्य की सबसे बड़ी विडंबना है: अब रचना पढ़ी नहीं जाती, केवल ‘रिएक्शन’ देखे जाते हैं। ऐसा लगता है कि साहित्य की गरिमा सचमुच कहीं मोबाइल फोन के चार्जर में फंसी पड़ी है — और हम सभी, लाइक और इमोजी की दौड़ में, बस स्क्रीन पर उंगलियाँ चला रहे हैं।

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