आपातकाल: भारतीय लोकतंत्र पर सबसे बड़ा हमला – एक ऐतिहासिक पुनर्चिंतन

(विष्णुदत्त शर्मा – विशेष लेख | विभूति फीचर्स) 25 जून 1975—यह तारीख भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में अंकित है। आज से ठीक 50 वर्ष पूर्व, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल लागू कर दिया था। यह निर्णय न केवल संवैधानिक प्रक्रियाओं को दरकिनार करने वाला था, बल्कि भारत की लोकतांत्रिक आत्मा पर भी गहरा प्रहार था। डॉ. राममनोहर लोहिया की बात—"कांग्रेस का लोकतंत्र में विश्वास सत्ता में रहने तक ही सीमित है"—इस घटना के साथ पूरी तरह सत्य सिद्ध हुई। आपातकाल लागू कर देश को एक व्यक्ति और एक परिवार की सत्ता के अधीन कर दिया गया।
राजनीतिक पृष्ठभूमि और आपातकाल की घोषणा
1970 के दशक की शुरुआत में भारत गहरी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियों से जूझ रहा था। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और जन असंतोष चरम पर था। स्थिति तब और जटिल हो गई जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 12 जून 1975 को इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया और उन्हें चुनाव लड़ने से छह साल के लिए अयोग्य ठहरा दिया।
इस फैसले के बाद विपक्ष ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में “संपूर्ण क्रांति” का आह्वान किया। जन दबाव और राजनीतिक संकट के बीच, 25 जून 1975 की रात इंदिरा गांधी ने कैबिनेट को विश्वास में लिए बिना राष्ट्रपति से आपातकाल की सिफारिश की, जिसे त्वरित रूप से मंजूरी दे दी गई।
मौलिक अधिकारों पर हमला और तानाशाही का दौर
आपातकाल लागू होते ही भारतीय लोकतंत्र के स्तंभ—अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, न्यायिक प्रक्रिया और व्यक्तिगत आज़ादी—सभी निलंबित कर दिए गए। मीडिया पर सख्त सेंसरशिप लगा दी गई, लाखों नागरिकों को बिना मुकदमे के जेलों में डाल दिया गया।
"इंदिरा इज़ इंडिया" जैसे नारे गढ़े गए, सत्ता का विरोध करने वालों को देशद्रोही ठहराया गया और भय का वातावरण बना दिया गया। इस दौरान कांग्रेस के समर्थक वामपंथी विचारकों को शिक्षा, इतिहास और प्रशासनिक संस्थानों में ऊँचे पद दिए गए, जिससे वैचारिक एजेंडे को पाठ्यक्रमों में स्थान मिल गया।
संजय गांधी की नीतियाँ और आमजन पर अत्याचार
संजय गांधी के नेतृत्व में जबरन जनसंख्या नियंत्रण अभियान चलाया गया, जिसमें लाखों गरीबों की बिना सहमति नसबंदी की गई। तुर्कमान गेट जैसी घटनाओं में विरोध करने पर गोली चलाई गई, सैकड़ों मारे गए, और हजारों परिवारों की झुग्गियाँ उजाड़ दी गईं।
संविधान, न्यायपालिका और लोकतंत्र का दमन
कांग्रेस द्वारा लोकतंत्र को कमजोर करने का यह पहला प्रयास नहीं था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस से लेकर सरदार पटेल और डॉ. अंबेडकर तक—हर असहमत स्वर को दबाने की प्रवृत्ति कांग्रेस की संस्कृति का हिस्सा रही है।
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अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग करते हुए 90 बार राज्य सरकारों को बर्खास्त किया गया।
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मीसा कानून में संशोधन कर लाखों लोगों को बिना सुनवाई के जेल भेजा गया।
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1973 में वरिष्ठता की परंपरा तोड़कर न्यायपालिका की स्वायत्तता पर चोट की गई।
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शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटकर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन किया गया।
लोकतंत्र की पुनर्स्थापना और मोदी सरकार की दृष्टि
आपातकाल के खिलाफ देशभर में लोकतंत्र रक्षकों ने संघर्ष किया। लगभग 1.4 लाख लोगों को जेल में डाला गया, लेकिन उनके साहस और प्रतिबद्धता से 21 महीने बाद लोकतंत्र बहाल हुआ।
आज भारत प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उसी संविधान की आत्मा को सशक्त बना रहा है, जिसे एक समय कांग्रेस ने कुचलने का प्रयास किया था।
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न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता—ये मूल्य अब केवल किताबों तक सीमित नहीं, बल्कि शासन के केंद्र में हैं।
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तुष्टीकरण की राजनीति की जगह अब संतुष्टीकरण और समावेशन की नीति अपनाई गई है।
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भारत अब 11वीं से 4वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है।
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सीमाएं सुरक्षित हैं, आतंकवाद पर निर्णायक प्रहार हुआ है, और विकसित भारत 2047 का लक्ष्य लेकर देश आगे बढ़ रहा है।
अमृतकाल में संकल्प: फिर न दोहराए जाएं काले दिन
आज जब हम अमृतकाल की ओर अग्रसर हैं, यह आवश्यक है कि हम इतिहास से सीखें और भविष्य को सुरक्षित करें। हमें लोकतांत्रिक संस्थाओं को और मज़बूत करना होगा, नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करनी होगी और हर तरह की तानाशाही प्रवृत्ति को नकारना होगा। लोकतंत्र सेनानियों का संघर्ष व्यर्थ नहीं गया। उनके बलिदान की नींव पर आज का भारत खड़ा है—एक ऐसा भारत जो संविधान को केवल ग्रंथ नहीं, बल्कि नीति, न्याय और जनकल्याण का आधार मानता है।