फ़्लाइट का झमेला: अनोखा भी, अलबेला भी

The flight experience: Unique and extraordinary.
 
फ़्लाइट का झमेला: अनोखा भी, अलबेला भी
(मुकेश “कबीर” – विनायक फीचर्स)  आजकल फ़्लाइट का बड़ा ही अजीब किस्सा चल रहा है। इतनी उड़ानें रद्द हो रही हैं कि “रद्द” शब्द भी शायद खुद को अपमानित महसूस करने लगा है। खैर, हालात जो भी हों, एक सच्चाई हर बार सामने आ ही जाती है—आदमी चाहे जितना आसमान में उड़ ले, आख़िरकार ज़मीन पर आना ही पड़ता है। और जैसे ही ज़मीन छूते हैं, हकीकत सीधा आँखों में उतर आती है।

ऊपर से जो जगहें गाँव जैसी दिखती हैं, वो असल में शहर निकलती हैं। और जो खाली मैदान लगते हैं, वहां भी लोग रहते हैं। फर्क बस इतना है कि ऊपर “पानी” नहीं, “वॉटर” मिलता है। नीचे रोटी होती है, ऊपर उसे “मील” कहा जाता है।ऊपर सफेद झक लिबास में सजी-धजी होस्टेस पानी पकड़ाती है, तो लगता है मानो सोमरस मिल गया हो। उस पानी को पीया नहीं जाता, “सिप” किया जाता है—और मज़े की बात ये कि स्वाद भी उसी हिसाब से बदल जाता है।

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लेकिन नीचे जब ट्रेन में रमेश बाबू एक चुल्लू पानी की कीमत समझते हैं, तब उन्हें एहसास होता है कि जितने में ऊपर पानी खरीदा, उतने में नीचे किसी की ज़िंदगी चल जाती है। यहां लोग सफर करते हैं—कभी बिना खाए, कभी सिर्फ पानी के सहारे।
यहां पानी कोई खूबसूरत बाला नहीं लाती, बल्कि कोई बाबूलाल लाता है। जिसे हम अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं। लेकिन वही बाबूलाल अचानक अमीर लगने लगता है, जब आपके पास खुल्ले पैसे नहीं होते और वह मुस्कराकर कहता है—“कोई बात नहीं बाबूजी, बाद में दे देना।”

यहीं अमीरी और गरीबी की असली लकीर दिखती है। ऊपर थोड़ी-थोड़ी देर में खाने-पीने का ऑर्डर दिया जा सकता है। नीचे की दुनिया अलग है। यहां लोग स्टेशन पर उतरकर खाना इसलिए नहीं लेते कि कहीं सीट न चली जाए, और ट्रेन का खाना इसलिए नहीं खाते कि कहीं सफर यहीं न खत्म हो जाए।सरकार ने सुविधा दी—“बाहर से ऑर्डर कर लीजिए।” लेकिन अब बाहर वाले भी समझदार हो गए हैं। उन्हें पता है मुसाफ़िर लौटकर शिकायत नहीं करने वाला। यहां नियम साफ़ है—जो गया, वो फिर नहीं आता… सिर्फ याद बनकर रह जाता है।

एक और फर्क है—लगेज का।ऊपर उतरते समय नशीली आवाज़ बताती है—अब बेल्ट खोलिए, अब खड़े हो जाइए, अब चलिए। सब कुछ रेडीमेड। स्टाफ की कमी न हो तो शायद हाथ पकड़कर उतार भी दें।नीचे कोई बताने वाला नहीं होता। उतरना भी अपने दम पर, लगेज उठाना भी खुद। यहां चकरी नहीं घूमती, यहां तो सबसे पहले अपना सामान उठाओ, नहीं तो कोई और उठा ले जाएगा।सरकार भी साफ़ कह चुकी है—“यात्री अपने सामान की सुरक्षा स्वयं करें।” आत्मनिर्भर भारत का यही असली पाठ है। वैसे भी सरकार का ज़्यादातर समय कुर्सी बचाने में निकल जाता है, आपका बैग बचाने का टाइम कहां से लाएगी?

याद रखिए—यह ज़मीन है।यहां ऊपर की तरह भोले बनकर नहीं चला जा सकता। यहां का सफर पूरी तरह सेल्फ-डिपेंड है। चल अकेला… चल अकेला… चल अकेला… और अंत में किसी का शेर—

“आसमाँ से ज़मीं पर आ जाओ,
जहां थे तुम वहीं पर आ जाओ

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