अंकों के जादूगर : महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन

The magician of numbers: The great mathematician Srinivasa Ramanujan
 
अंकों के जादूगर : महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन

(प्रमोद दीक्षित मलय – विनायक फीचर्स)  आज से लगभग 125 वर्ष पूर्व एक गांव के विद्यालय में कक्षा तीन के गणित शिक्षक बच्चों को समझाते हुए कहते हैं कि यदि तीन केले तीन लोगों में या एक हजार केले एक हजार लोगों में बराबर बाँटे जाएँ, तो प्रत्येक को एक-एक केला मिलेगा। अर्थात् किसी संख्या को उसी संख्या से भाग देने पर भागफल एक आता है।तभी कक्षा में बैठे एक बालक ने प्रश्न किया— “क्या शून्य को शून्य से भाग देने पर भी भागफल एक ही आएगा?” क्षण भर में पूरी कक्षा मौन हो गई।

यही बालक आगे चलकर कक्षा पाँच में पूरे जिले में सर्वोच्च अंक लाकर अपने माता-पिता और विद्यालय को गौरवान्वित करता है। इतना ही नहीं, कक्षा सात में पढ़ते हुए वह कक्षा बारहवीं और बी.ए. के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाने लगता है। कालांतर में यही बालक विश्व का महान गणितज्ञ सिद्ध हुआ, जिसे आज हम श्रीनिवास रामानुजन आयंगर के नाम से जानते हैं।

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रामानुजन के प्रमेय-आधारित सूत्र आज भी गणितज्ञों के लिए रहस्य और शोध का आधार बने हुए हैं। रामानुजन अभाज्य, रामानुजन स्थिरांक और संख्या सिद्धांत में उनके अवदान विश्वविख्यात हैं। वे गणित की दुनिया के ऐसे प्रखर भास्कर थे, जिनकी मेधा और अंकशास्त्र की समझ ने संपूर्ण विश्व को चमत्कृत किया। वे गणितीय कौशल के फलक का कोहिनूर माणिक्य और गणित के आकाश का दैदीप्यमान नक्षत्र थे।

संघर्षों से भरा जीवन

रामानुजन का जीवन-पथ अत्यंत कंटकाकीर्ण था। तमाम अभावों और दुश्वारियों के बीच भी वे मृत्यु पर्यंत गणित-साधना में लीन रहे। अंतिम समय में रोगशैय्या पर पेट के बल लेटे-लेटे वे गणितीय सूत्र गढ़ते रहे।उनका जन्म 22 दिसंबर 1887 को तमिलनाडु के इरोड जनपद में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता श्रीनिवास आयंगर एक दुकान में मुनीम थे और माता कोमलताम्मल धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। एक वर्ष बाद परिवार कुंभकोणम् आ गया। बालक तीन वर्ष तक नहीं बोला—लोगों को लगा वह गूंगा है—पर जब वाणी फूटी तो परिवार में खुशी छा गई।

प्राथमिक शिक्षा कुंभकोणम् में ही हुई। टाउन हाई स्कूल में पढ़ते समय पुस्तकालय में त्रिकोणमिति की एक पुस्तक मिली जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी। वे सूत्र हल करने में इतने तल्लीन हो जाते कि न भूख लगती, न प्यास। अंकों से खेलते-खेलते वे उनके गुण-धर्मों में डूब गए।

हालांकि अन्य विषयों की उपेक्षा के कारण वे उनमें पिछड़ते चले गए। गणित में सर्वोच्च अंक लाने के बावजूद अन्य विषयों में अनुत्तीर्ण होने से छात्रवृत्ति छिन गई और कॉलेज छूट गया। 1907 में बारहवीं की परीक्षा व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में दी—गणित में पूरे अंक, फिर भी असफल।

ईश्वर में अटूट विश्वास

अगले पाँच वर्ष उनके जीवन की सबसे कठिन परीक्षा थे। कोई नौकरी नहीं, साधन नहीं—केवल गणित के प्रति अगाध प्रेम। इस अंधकार काल में उन्हें शक्ति देती रही कुलदेवी नामगिरि में उनकी अटूट आस्था। वे कहते थे—
“गणित में शोध मेरे लिए ईश्वर की खोज है।”1909 में उनका विवाह हुआ और जिम्मेदारियाँ बढ़ीं। मद्रास पहुँचे, पर नौकरी नहीं मिली। अंततः उनके गणितीय रजिस्टर ने ही उन्हें पहचान दिलाई। डिप्टी कलेक्टर वी. रामास्वामी अय्यर ने उनकी प्रतिभा पहचानी और मासिक मानधन दिलाया।

अंतरराष्ट्रीय पहचान

रामानुजन के शोधपत्र इंडियन मैथमेटिक्स सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित हुए। 8 फरवरी 1913 को उन्होंने अपने प्रमेयों सहित एक पत्र प्रो. जी.एच. हार्डी को भेजा। पहले उपेक्षा हुई, पर लिटिलवुड के साथ विचार-विमर्श के बाद हार्डी उनकी प्रतिभा से अभिभूत हुए।रामानुजन को कैम्ब्रिज बुलाया गया। वहीं उनके अनेक शोधपत्र प्रकाशित हुए। वे रॉयल सोसायटी के फेलो चुने गए—सबसे कम उम्र के और पहले भारतीय। ट्रिनिटी कॉलेज के फेलो बनने वाले भी वे पहले भारतीय थे।परंतु इंग्लैंड की जलवायु, खान-पान और मानसिक श्रम ने उनके शरीर को तोड़ दिया। क्षय रोग ने घेर लिया। 1919 में भारत लौटे और मद्रास विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने।

अमर विरासत

26 अप्रैल 1920 को मात्र 32 वर्ष की आयु में गणित का यह दीप बुझ गया, पर उसकी रोशनी आज भी संसार को आलोकित कर रही है।1976 में ट्रिनिटी कॉलेज के पुस्तकालय में मिली उनकी हस्तलिखित नोटबुक आज भी गणितज्ञों के लिए चुनौती है। उन पर आधारित फिल्म “The Man Who Knew Infinity” बनी। भारत सरकार ने उनके जन्मदिन 22 दिसंबर को राष्ट्रीय गणित दिवस घोषित किया।

जब तक गणित रहेगा, तब तक रामानुजन संख्याएँ, थीटा फलन और संख्या सिद्धांत में उनका योगदान विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं को प्रेरित करता रहेगा।रामानुजन गणित के पृष्ठों पर सदैव जीवित रहेंगे।यही बालक आगे चलकर कक्षा पाँच में पूरे जिले में सर्वोच्च अंक लाकर अपने माता-पिता और विद्यालय को गौरवान्वित करता है। इतना ही नहीं, कक्षा सात में पढ़ते हुए वह कक्षा बारहवीं और बी.ए. के विद्यार्थियों को गणित पढ़ाने लगता है। कालांतर में यही बालक विश्व का महान गणितज्ञ सिद्ध हुआ, जिसे आज हम श्रीनिवास रामानुजन आयंगर के नाम से जानते हैं।

रामानुजन के प्रमेय-आधारित सूत्र आज भी गणितज्ञों के लिए रहस्य और शोध का आधार बने हुए हैं। रामानुजन अभाज्य, रामानुजन स्थिरांक और संख्या सिद्धांत में उनके अवदान विश्वविख्यात हैं। वे गणित की दुनिया के ऐसे प्रखर भास्कर थे, जिनकी मेधा और अंकशास्त्र की समझ ने संपूर्ण विश्व को चमत्कृत किया। वे गणितीय कौशल के फलक का कोहिनूर माणिक्य और गणित के आकाश का दैदीप्यमान नक्षत्र थे।

संघर्षों से भरा जीवन

रामानुजन का जीवन-पथ अत्यंत कंटकाकीर्ण था। तमाम अभावों और दुश्वारियों के बीच भी वे मृत्यु पर्यंत गणित-साधना में लीन रहे। अंतिम समय में रोगशैय्या पर पेट के बल लेटे-लेटे वे गणितीय सूत्र गढ़ते रहे।उनका जन्म 22 दिसंबर 1887 को तमिलनाडु के इरोड जनपद में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता श्रीनिवास आयंगर एक दुकान में मुनीम थे और माता कोमलताम्मल धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। एक वर्ष बाद परिवार कुंभकोणम् आ गया। बालक तीन वर्ष तक नहीं बोला—लोगों को लगा वह गूंगा है—पर जब वाणी फूटी तो परिवार में खुशी छा गई।

प्राथमिक शिक्षा कुंभकोणम् में ही हुई। टाउन हाई स्कूल में पढ़ते समय पुस्तकालय में त्रिकोणमिति की एक पुस्तक मिली जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी। वे सूत्र हल करने में इतने तल्लीन हो जाते कि न भूख लगती, न प्यास। अंकों से खेलते-खेलते वे उनके गुण-धर्मों में डूब गए।हालांकि अन्य विषयों की उपेक्षा के कारण वे उनमें पिछड़ते चले गए। गणित में सर्वोच्च अंक लाने के बावजूद अन्य विषयों में अनुत्तीर्ण होने से छात्रवृत्ति छिन गई और कॉलेज छूट गया। 1907 में बारहवीं की परीक्षा व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में दी—गणित में पूरे अंक, फिर भी असफल।

ईश्वर में अटूट विश्वास

अगले पाँच वर्ष उनके जीवन की सबसे कठिन परीक्षा थे। कोई नौकरी नहीं, साधन नहीं—केवल गणित के प्रति अगाध प्रेम। इस अंधकार काल में उन्हें शक्ति देती रही कुलदेवी नामगिरि में उनकी अटूट आस्था। वे कहते थे—
“गणित में शोध मेरे लिए ईश्वर की खोज है।”1909 में उनका विवाह हुआ और जिम्मेदारियाँ बढ़ीं। मद्रास पहुँचे, पर नौकरी नहीं मिली। अंततः उनके गणितीय रजिस्टर ने ही उन्हें पहचान दिलाई। डिप्टी कलेक्टर वी. रामास्वामी अय्यर ने उनकी प्रतिभा पहचानी और मासिक मानधन दिलाया।

अंतरराष्ट्रीय पहचान

रामानुजन के शोधपत्र इंडियन मैथमेटिक्स सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित हुए। 8 फरवरी 1913 को उन्होंने अपने प्रमेयों सहित एक पत्र प्रो. जी.एच. हार्डी को भेजा। पहले उपेक्षा हुई, पर लिटिलवुड के साथ विचार-विमर्श के बाद हार्डी उनकी प्रतिभा से अभिभूत हुए।रामानुजन को कैम्ब्रिज बुलाया गया। वहीं उनके अनेक शोधपत्र प्रकाशित हुए। वे रॉयल सोसायटी के फेलो चुने गए—सबसे कम उम्र के और पहले भारतीय। ट्रिनिटी कॉलेज के फेलो बनने वाले भी वे पहले भारतीय थे।परंतु इंग्लैंड की जलवायु, खान-पान और मानसिक श्रम ने उनके शरीर को तोड़ दिया। क्षय रोग ने घेर लिया। 1919 में भारत लौटे और मद्रास विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने।

अमर विरासत

26 अप्रैल 1920 को मात्र 32 वर्ष की आयु में गणित का यह दीप बुझ गया, पर उसकी रोशनी आज भी संसार को आलोकित कर रही है।1976 में ट्रिनिटी कॉलेज के पुस्तकालय में मिली उनकी हस्तलिखित नोटबुक आज भी गणितज्ञों के लिए चुनौती है। उन पर आधारित फिल्म “The Man Who Knew Infinity” बनी। भारत सरकार ने उनके जन्मदिन 22 दिसंबर को राष्ट्रीय गणित दिवस घोषित किया।जब तक गणित रहेगा, तब तक रामानुजन संख्याएँ, थीटा फलन और संख्या सिद्धांत में उनका योगदान विद्यार्थियों और शोधकर्ताओं को प्रेरित करता रहेगा।रामानुजन गणित के पृष्ठों पर सदैव जीवित रहेंगे।

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