असंतोष का नाम है... विपक्ष

The name of dissatisfaction is… opposition
 
असंतोष का नाम है... विपक्ष

(विवेक रंजन श्रीवास्तव – विनायक फीचर्स) मानव सभ्यता की सबसे अनमोल उपलब्धियों में से एक है "असंतोष"। यदि मनुष्य संतोषी होता, तो वह आज भी पेड़ों की शाखाओं पर लटके हुए पशुओं की खाल से तन ढक रहा होता। यह असंतोष ही विकास का असली ईंधन है। और राजनीति में यही असंतोष जब रूप बदलता है, तो उसे विपक्ष कहा जाता है — वही विपक्ष जो चुनाव हारते ही संतोष छोड़ देता है और हर मंच पर असंतोष की मशाल उठा लेता है, चाहे वह संसद हो या सोशल मीडिया की गलियां।

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रिएक्टिव गैस से भी ज़्यादा सक्रिय

जैसे विज्ञान में कोई इलेक्ट्रॉन अपनी कक्षा में असंतुलित होता है और सबसे ज्यादा प्रतिक्रिया करता है, ठीक वैसे ही सत्ता से दूर विपक्ष सबसे अधिक "रिएक्टिव" हो जाता है। सत्ता में रहने वाला दल अक्सर निष्क्रिय गैसों की तरह व्यवहार करता है — मौन, स्थिर और कई बार दुर्लभ भी।

असंतोष की कलाकारी

विपक्ष एक कलाकार है और उसका ब्रश है असंतोष। महंगाई हो तो सरकार पर हमला, और अगर सरकार राहत दे तो उस पर आर्थिक दिवालियापन का आरोप! जब सब्ज़ी महंगी हो तो गरीबों की चिंता, और जब सस्ती हो जाए तो किसानों के लिए आंसू। सरकार सड़क बनाए तो पर्यावरण की दुहाई, और अगर सड़कें टूटी हों तो शासन की विफलता का रोना। हर परिस्थिति में विरोध की कोई वजह विपक्ष खोज ही लेता है।

जनरल बोगी से लेकर बुलेट ट्रेन तक

सरकार चाहे बुलेट ट्रेन चलाए या मेट्रो में वाई-फाई दे, विपक्ष को चिंता सताती है – “जनरल बोगी में खड़े यात्री क्या करें?” उस जनरल बोगी को सत्ता में रहते हुए शायद ही देखा गया हो।

मुद्दा ज़रूरी है, सीट नहीं

विपक्ष को असल में सीट नहीं, मुद्दा चाहिए। सरकार नीति बनाए तो वह असंवैधानिक, और वही नीति जब विपक्ष के पुराने घोषणापत्र में मिले, तो समय का बहाना सामने आ जाता है। विपक्ष की सोच ऐसी है कि रामायण का रावण भी उसके तर्कों के आगे शर्मिंदा हो जाए।

हर समय शिकायत का मौका

मुद्रास्फीति हो तो आम आदमी की दुहाई, घटे तो व्यापारियों की चिंता। टैक्स बढ़े तो उत्पीड़न, घटे तो राजस्व का नुक़सान। चीन सीमा पर गोली चले तो सरकार विफल, न चले तो डरपोक! विपक्ष किसी स्थिति को तटस्थता से देख ही नहीं सकता।

मीडिया में राजधानी, बयानबाज़ी में संविधान

विपक्ष की सत्ता संसद में नहीं, मीडिया स्टूडियोज़ में बसती है। उसका संविधान तर्क नहीं, भावना और बयान है। जैसे हर व्हाट्सएप ग्रुप में कोई एक सदस्य होता है जो हर फोटो में कमी निकालता है, वैसे ही विपक्ष हर सरकारी कदम में कमी खोज लेता है — भले ही वह हो या न हो।

लोकतंत्र का कड़वा लेकिन ज़रूरी काढ़ा

वास्तव में, विपक्ष लोकतंत्र के लिए वही है जो बीमारी में काढ़ा — कड़वा, पर ज़रूरी। उसकी सबसे बड़ी ताकत है उसका हमेशा असंतुष्ट रहना। उसे सरकार से प्रेम नहीं चाहिए, पर टिप्पणी करने का अधिकार चाहिए। हर नीति में दोष, हर काम में षड्यंत्र और हर योजना में अविश्वास उसका स्वाभाविक स्वभाव है।

जब विरोध का कारण न मिले?

तो खुद से शिकायत कर लेता है — “हम तो धरने के लिए तैयार बैठे थे, सरकार ने कुछ किया ही नहीं!”यह ‘असंतोष रूपी विपक्ष’ ही है जो लोकतंत्र में बहस को ज़िंदा रखता है, अखबारों को सुर्खियां देता है और न्यूज़ चैनलों को टीआरपी। और देश? वह तो पक्ष हो या विपक्ष, किसी न किसी संहिता में चलता ही रहता है!

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