धर्म का सच्चा मर्म: धार्मिकता से पहले मानवता आवश्यक

(डॉ. फौज़िया नसीम शाद – विभूति फीचर्स)
आज के दौर में धर्म पर चर्चा करना या इस विषय पर अपने विचार प्रकट करना एक अत्यंत संवेदनशील कार्य बन चुका है। हालात ऐसे हैं कि धार्मिक मुद्दों पर बोलने से पहले हर व्यक्ति को बार-बार सोचना पड़ता है। यह स्थिति न केवल संवाद को सीमित करती है, बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी प्रभावित करती है।
इसके बावजूद, यह एक अस्वीकार्य सच्चाई नहीं है कि जन्म से मृत्यु तक धर्म हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा है। जिस धर्म में हम जन्म लेते हैं, प्रायः उसी के अनुसार हमारी सोच, संस्कार और जीवनशैली विकसित होती है। ठीक वैसे ही जैसे एक बच्चा अपनी माँ को सर्वोत्तम मानता है, वैसे ही हम भी अपने धर्म को श्रेष्ठ समझते हैं — इसमें कोई बुराई नहीं। परंतु समस्या तब पैदा होती है जब हम केवल इंसान न रहकर अपनी धार्मिक पहचान में सीमित हो जाते हैं: 'हिंदू', 'मुस्लिम', 'सिख', 'ईसाई' जैसे टैग हमारी इंसानियत पर भारी पड़ने लगते हैं।
दुर्भाग्यवश, अनेक बार वे लोग जो खुद को धार्मिक कहते हैं, धर्म की मूल भावना से ही अनभिज्ञ होते हैं। वे भूल जाते हैं कि धर्म किसी भेदभाव या नफ़रत का माध्यम नहीं, बल्कि प्रेम, सहयोग और समरसता की शिक्षा है। पूजा-पाठ और इबादत के कर्मकांड धर्म का उद्देश्य नहीं, बल्कि एक माध्यम हैं — आत्मशुद्धि, अनुशासन और सहानुभूति की ओर अग्रसर होने के लिए।
धर्म का वास्तविक स्वरूप क्या है?
ईश्वर हो या अल्लाह, वह हमारी अराधना का मोहताज नहीं है। उसके पास सेवा में रहने वाले फ़रिश्तों की कोई कमी नहीं। पूजा और इबादत की सारी विधियाँ हमें एक संतुलित, शांत और सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं। धर्म का सार यह है कि हम दूसरों के प्रति दयालु हों, सच्चे हों और सबके साथ समानता का व्यवहार करें।
हमारे कर्म और व्यवहार ही यह सिद्ध करते हैं कि हम वास्तव में धार्मिक हैं या नहीं। यदि कोई व्यक्ति दूसरों से घृणा करता है, जाति या धर्म के आधार पर उन्हें अपमानित करता है — तो वह न केवल उन्हें, बल्कि स्वयं ईश्वर की रचना का भी अनादर करता है। ईश्वर तो सबको एक नजर से देखता है, फिर हम भेदभाव करने वाले कौन होते हैं?
"धार्मिक बनने से पहले इंसान बनना ज़रूरी है।"
यदि किसी के भीतर मानवता का भाव नहीं है, तो उसकी धार्मिकता केवल एक दिखावा है। हर धर्म — चाहे उसका नाम कुछ भी हो — शांति, दया, करुणा, सत्य और समानता की सीख देता है। घृणा, हिंसा, भेदभाव, ऊँच-नीच जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों का तो किसी भी सच्चे धर्म में स्थान नहीं है।
विभाजन नहीं, एकता धर्म का मर्म है
पूजा-पद्धतियाँ भिन्न हो सकती हैं, पर लक्ष्य सबका एक ही है — ईश्वर की निकटता और आत्मा की शुद्धता। यदि सब यही समझ जाएँ कि हम सब एक ही शक्ति के अंश हैं, तो धर्म के नाम पर होने वाली नफ़रतें स्वतः समाप्त हो जाएँ।
यदि हम सभी प्रयास करें कि पहले अच्छे इंसान बनें — बिना किसी भेदभाव के — तो मृत्यु के बाद के स्वर्ग की तलाश भी समाप्त हो जाएगी। यह धरती ही एक स्वर्ग बन सकती है।