राजनीतिक प्रवक्ताओं की मर्यादाहीन भाषा पर नियंत्रण ज़रूरी

(डॉ. सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स)
सार्वजनिक मंचों पर चर्चित होने की चाह में कई राजनेता ऐसे रास्तों पर बढ़ते जा रहे हैं, जो न केवल उनके व्यक्तिगत सम्मान को ठेस पहुंचाते हैं, बल्कि उनकी पूरी पार्टी की छवि को भी नुकसान पहुंचाते हैं। चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, आजकल नेताओं की जुबान अक्सर बेलगाम होती जा रही है। वे यह सोचने का भी समय नहीं लेते कि उनके मुंह से निकला एक असंयमित वाक्य न केवल विवाद को जन्म दे सकता है, बल्कि उन्हें सार्वजनिक रूप से माफी मांगने की स्थिति में भी ला सकता है।
सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि जिन प्रवक्ताओं को किसी पार्टी की विचारधारा को प्रस्तुत करने और राष्ट्रव्यापी स्तर पर पार्टी का पक्ष रखने का दायित्व सौंपा गया है, वे ही अनियंत्रित भाषा और अनुचित आचरण से पार्टी के प्रति नकारात्मक धारणा बना रहे हैं। केवल टेलीविज़न डिबेट ही नहीं, सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भी अक्सर देखा गया है कि प्रवक्ता अपने विचारों की अभिव्यक्ति के नाम पर मर्यादा को ताक पर रखकर अपशब्दों और गाली-गलौज का सहारा लेते हैं। कई बार ये बहसें शारीरिक झड़प तक पहुंच जाती हैं।
लोकतंत्र में यह किसी विडंबना से कम नहीं कि जनता के प्रतिनिधि और प्रवक्ता सार्वजनिक मंचों पर ऐसे शब्दों का प्रयोग करें, जिन्हें हम सामान्य घरेलू संवाद में भी अस्वीकार्य मानते हैं। इससे न केवल राजनीति का स्तर गिरता है, बल्कि नई पीढ़ी में राजनीति के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण भी पनपता है।
अब प्रश्न उठता है कि जब कोई प्रवक्ता निरंतर अनुशासनहीन और असभ्य भाषा का प्रयोग करता है, तो उसे तत्काल प्रवक्ता पद से हटाने में देरी क्यों की जाती है? क्या राजनीतिक दलों की छवि बचाने की जिम्मेदारी केवल जनता की है?
समय की मांग है कि राजनीतिक दल न सिर्फ़ प्रवक्ताओं के चयन में विवेक दिखाएं, बल्कि उनके आचरण की निरंतर निगरानी भी सुनिश्चित करें। सार्वजनिक संवाद में मर्यादा बनाए रखना केवल शिष्टाचार नहीं, बल्कि लोकतंत्र की गरिमा का प्रतीक है। ऐसे में, अनुशासनहीन प्रवक्ताओं पर नकेल कसना अनिवार्य हो गया है, ताकि राजनीति का स्तर और संवाद की मर्यादा दोनों सुरक्षित रह सकें।