विस्फोट करती अबला नहीं, सबला है आज की नारी

The woman who causes explosions is not a weak woman, but a strong woman today
 
विस्फोट करती अबला नहीं, सबला है आज की नारी

(सुधाकर आशावादी – विनायक फीचर्स)   एक समय था जब कविताओं में यह कहा जाता था— “चिड़िया बम नहीं बनाएगी।” यह पंक्ति एक प्रतीक थी कोमलता, प्रेम और नारीत्व की। लेकिन आज की सामाजिक परिस्थितियाँ कुछ और ही कहानी कह रही हैं। सवाल यह नहीं है कि "चिड़िया बम बनाएगी या नहीं?" बल्कि यह है कि "क्यों न बनाए?" जिस समाज में असहिष्णुता और अत्याचार ने अपने पैर पसार लिए हों, वहां अब नारी को भी अपने भीतर की चिंगारी को पहचानना पड़ा है।

आज की महिला सिर्फ संवेदना की मूर्ति नहीं, वह जरूरत पड़ने पर क्रांति की मशाल भी बन सकती है। इतिहास में भी यह देखा गया है— चाहे वह माता जीजाबाई, पन्ना धाय, रानी लक्ष्मीबाई या दुर्गा भाभी हों, सभी ने यह सिद्ध किया कि नारी जब उठती है तो परिवर्तन सुनिश्चित होता है।

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जहाँ कभी मैथिलीशरण गुप्त ने नारी को “अबला” कहकर व्याख्यायित किया था—
"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी…"

— आज वही "अबला" नारी स्वाभिमान और प्रतिशोध का पर्याय बन चुकी है।

एक नया दौर: जब नारी रिवॉल्वर तानती है

आज की नारी की यह 'सबला' छवि केवल रूपक नहीं, बल्कि यथार्थ है। पूर्वी उत्तर प्रदेश की घटना इसका उदाहरण है जहाँ एक महिला ने गैस पंप कर्मी पर रिवॉल्वर तान दी— केवल इसलिए क्योंकि उसने सुरक्षा के तहत परिवार को कार से बाहर निकलने का आग्रह किया था। यह केवल एक घटना नहीं, यह उस आक्रोश की अभिव्यक्ति है जिसे दशकों तक दबाया गया।

वीरांगनाएं अब मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं

ऐसी घटनाएं डिजिटल युग के कैमरे में कैद होकर सोशल मीडिया के ज़रिए जनचेतना का हिस्सा बन जाती हैं। वर्षों पूर्व एक महिला ने शादी के मंडप पर ही दूल्हे को दहेज लोभी कहकर जेल भिजवा दिया था। पूरा देश उस 'वीरांगना' की सराहना कर रहा था, लेकिन जब उसकी सच्चाई सामने आई— एक प्रेमप्रसंग की आड़ में झूठ और बदनामी की कहानी— तब समाज ने भी आत्मचिंतन किया।

अब नारी समझौते नहीं, स्वाभिमान के लिए खड़ी है

अब नारी चुपचाप अत्याचार सहने वाली नहीं, बल्कि सशक्त होकर जवाब देने वाली बन चुकी है। अब वह रिश्तों के बोझ में अपना अस्तित्व नहीं कुचलती। न दहेज की बलि चढ़ती है, न ही घरेलू हिंसा को नियति मानती है। वह किसी "मुस्कान" की तरह आक्रोश बन सकती है या किसी "सोनम" की तरह प्रतिशोध की प्रतिमा।

अगर आज मैथिलीशरण गुप्त होते?

संभवतः उन्हें अपनी कविता की पंक्तियाँ कुछ यूं लिखनी पड़ती—

“सबला जीवन सफल तुम्हारी यही कहानी,
चेहरा है अति क्रूर, रचती नित नई कहानी।

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