वंदे मातरम् : मातृभूमि के प्रति समर्पण और स्वतंत्रता का कालजयी मंत्र
(मनोज कुमार अग्रवाल — विनायक फीचर्स) लोकसभा में वंदे मातरम् की चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इस गीत की गूंज ने न केवल अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी, बल्कि देशभर में ऐसा राष्ट्रभक्ति का वातावरण तैयार किया, जिसने आजादी की लड़ाई को गति दी। उनके अनुसार वंदे मातरम् कोई राजनीतिक विषय नहीं, बल्कि वह प्रेरणा-स्रोत है जिसकी शक्ति से हम सब आज स्वतंत्र भारत की संसद में बैठे हैं।
वंदे मातरम् : स्वतंत्रता संघर्ष का संस्कार
1950 में संविधान सभा ने वंदे मातरम् को भारत का राष्ट्रीय गीत घोषित किया। बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित यह गीत 7 नवंबर 1875 को साहित्यिक पत्रिका बंगदर्शन में प्रकाशित हुआ था। बाद में इसे उनके सुप्रसिद्ध उपन्यास आनंदमठ (1882) में शामिल किया गया।वंदे मातरम् को पहली बार रवींद्रनाथ टैगोर ने 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में स्वरबद्ध कर प्रस्तुत किया। यह गीत जल्द ही स्वतंत्रता आंदोलन का नारा बन गया। 7 अगस्त 1905 को पहली बार इसे राजनीतिक घोषणा के रूप में इस्तेमाल किया गया।
150 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में 7 नवंबर 2025 को इसकी वर्षगांठ देशभर में व्यापक रूप से मनाई गई। यह गीत भारतीय राष्ट्रवाद, संस्कृति, सभ्यता और सामूहिक भावना का जीवंत प्रतीक बन चुका है। ब्रिटिश शासन वंदे मातरम् की लोकप्रियता से इतना भयभीत हुआ कि इसे गाने और छापने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
वंदे मातरम् पर संसद में चर्चा और राजनीतिक संदर्भ
संसद में इस गीत की 150वीं वर्षगांठ पर विस्तृत बहस हुई। पक्ष और विपक्ष दोनों ने विचार रखे।पीएम मोदी ने कहा कि 1937 के कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम् के कुछ अंश हटाना “विभाजन के बीज” बोने जैसा था। उनका आरोप था कि इससे गीत की मूल भावना कमजोर हुई।इतिहास में दर्ज है कि 1923 में मोहम्मद अली जौहर वंदे मातरम् के दौरान मंच छोड़कर चले गए थे। कुछ मुस्लिम नेताओं ने इसमें देवी-देवताओं से जुड़े शब्दों पर आपत्ति जताई। फलस्वरूप, कांग्रेस कार्यसमिति ने यह निर्णय लिया कि राष्ट्रीय आयोजनों में केवल पहले दो ही पद गाए जाएंगे। यही परंपरा स्वतंत्रता के बाद भी जारी रही, और 24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा प्रदान किया।
अमर राष्ट्रगीत का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक स्वरूप
वंदे मातरम् केवल गीत नहीं, बल्कि भारत की आध्यात्मिक चेतना, प्रकृति और मातृभूमि के प्रति समर्पण का प्रतीक है।आनंदमठ के संन्यासियों के लिए यह देशभक्ति का मन्त्र था। इसमें मातृभूमि को मां दुर्गा के रूप में चित्रित किया गया —“सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज-शीतलाम्…”यह पंक्तियाँ भारत की समृद्धि, शक्ति और सौम्यता का दर्शन कराती हैं।1905 में कोलकाता में “वंदे मातरम् संप्रदाय” की स्थापना हुई, जो हर रविवार प्रभात फेरी निकालता था। इन जुलूसों में हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदाय बढ़-चढ़कर भाग लेते थे।
20 मई 1906 को बारीसाल में निकले ऐतिहासिक वंदे मातरम् जुलूस में दस हजार से अधिक लोग शामिल हुए, जिनमें सभी धर्मों के लोग थे। रवींद्रनाथ टैगोर भी कई बार इन प्रभात फेरियों में सम्मिलित हुए।
बंकिम चंद्र : राष्ट्रवाद के साहित्यिक निर्माता
बंकिम चंद्र चटर्जी (1838–1894) बंगाल पुनर्जागरण के प्रमुख स्तंभ थे।
उनकी रचनाओं — दुर्गेशनंदिनी, कपालकुंडला, देवी चौधरानी और आनंदमठ — ने आधुनिक बंगाली साहित्य और भारतीय राष्ट्रवादी चेतना को नई दिशा दी।
वंदे मातरम् उनकी उस भावना का परिणाम था, जो मातृभूमि को एक जीवंत शक्ति, एक दिव्य माता के रूप में देखती थी।
वंदे मातरम् की प्रतिष्ठा और वर्तमान विवाद
इतिहास गवाह है कि इस गीत ने बंगाल विभाजन का विरोध तीव्र किया, अंग्रेजों को भयभीत किया और स्वतंत्रता सेनानियों को साहस दिया।फिर भी राजनीतिक तुष्टिकरण के कारण इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में सीमित रूप से स्वीकार किया गया। आज जब संसद में इस पर विवाद उभरता है, यह कहीं न कहीं वंदे मातरम् की गरिमा के साथ खिलवाड़ प्रतीत होता है, क्योंकि यह गीत करोड़ों भारतीयों की राष्ट्रीय चेतना और आत्मसम्मान का अभिन्न हिस्सा है।

