विदिशा नगर पालिका: महिला आरक्षण के नाम पर 'कठपुतली' राजनीति का वर्चस्व

(एक आलोचनात्मक विश्लेषण)
हमारे देश में महिला आरक्षण को महिला सशक्तिकरण के एक मजबूत प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन ज़मीनी हकीकत अक्सर इसके विपरीत होती है। यह विडंबनापूर्ण स्थिति एक बार फिर मध्य प्रदेश के विदिशा नगर पालिका में देखने को मिली है, जहाँ आरक्षित पदों पर निर्वाचित महिलाएं राजनीतिक वर्चस्व के सामने मात्र एक मोहरा बनकर रह जाती हैं।
ताज़ा घटनाक्रम: अध्यक्ष पद का प्रभार हस्तांतरण
विदिशा नगर पालिका का अध्यक्ष पद इस बार महिलाओं के लिए आरक्षित है। ताज़ा मामला यहाँ की वर्तमान अध्यक्ष प्रीति शर्मा से जुड़ा है। उन्होंने अपने 'स्वास्थ्य ठीक न होने' का हवाला देते हुए अपने अध्यक्षीय प्रभार उपाध्यक्ष संजय दिवाकीर्ति को सौंप दिए हैं।
दिलचस्प बात यह है कि प्रीति शर्मा ने न तो अपनी बीमारी का स्पष्टीकरण दिया है और न ही प्रभार सौंपने की अवधि बताई है। नाम पट्टिकाओं पर उनका नाम अक्सर प्रीति राकेश शर्मा लिखा जाता है, जो यह स्पष्ट करता है कि उनके नाम के पीछे किसी पुरुष प्रभाव की छाया है।
विदिशा की पुरानी राजनीतिक विडंबना
विदिशा, जो आज़ादी के समय से ही शिक्षित महिलाओं का केंद्र रहा है और जहाँ की महिलाएं डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर और पत्रकार जैसे हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही हैं, वहीं राजनीति में उनकी भूमिका केवल नाममात्र की रह जाती है। यह पहली बार नहीं है जब विदिशा की किसी महिला नेता को राजनीति छोड़ने या अधिकार त्यागने के लिए विवश होना पड़ा है:
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सरोज जैन का उदाहरण: विदिशा नगर पालिका की पहली महिला अध्यक्ष सरोज जैन—जो एक प्रतिष्ठित वकील और मृदुभाषी थीं—भी अंततः राजनीति नहीं कर पाईं। उन्होंने भी अपने सारे प्रभार उपाध्यक्ष बसंत कुमार जैन को सौंप दिए और बाद में राजनीति से संन्यास ले लिया।
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ज्योति शाह और प्रभाव की राजनीति: पूर्व वित्त मंत्री राघवजी भाई की पुत्री ज्योति शाह ने भी अध्यक्ष के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया, लेकिन यह उनके पिता के राजनीतिक छत्रछाया में हुआ। पिता के पद से हटते ही ज्योति शाह भी राजनीतिक परिदृश्य से लगभग बाहर हो गईं।
आरक्षण का मज़ाक: प्रतिनिधिवाद की प्रथा
सरकार महिला भागीदारी बढ़ाने के लिए लगातार प्रयास कर रही है, लेकिन पुरुष राजनेताओं द्वारा इन प्रयासों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को साधने के लिए नेता आरक्षित सीटों से घर की महिलाओं को चुनाव लड़वाते हैं, और जीत के बाद वे महिलाएँ केवल कठपुतली बनकर रह जाती हैं।
इस 'प्रतिनिधिवाद' की प्रथा को संस्थागत रूप दिया जा रहा है। नियमों में कुछ हद तक अंकुश लगने के बावजूद, अब 'अध्यक्ष प्रतिनिधि' और 'पार्षद प्रतिनिधि' जैसे पदों का सृजन किया गया है। यहाँ तक कि एक पार्षद, जिसके वार्ड की सीमा सीमित होती है, उसे भी 'पार्षद प्रतिनिधि' रखने की आवश्यकता पड़ती है। इन प्रतिनिधियों को निर्वाचित महिला के बगल में बैठकर निर्देश देते या हस्ताक्षरों पर मुहर लगवाते हुए देखा जा सकता है, जो महिला आरक्षण के मूल उद्देश्य का उपहास है।
क्षमता नहीं, वर्चस्व का प्रश्न
यह प्रश्न किसी महिला की अक्षमता का नहीं है। जब एक महिला राष्ट्रपति के रूप में देश का प्रतिनिधित्व कर सकती है या देश के वित्तमंत्री के रूप में अर्थव्यवस्था संभाल सकती है, तो वह निश्चित रूप से एक नगर पालिका का संचालन कर सकती है।
चर्चा का विषय केवल इतना है कि महिला आरक्षण के नाम पर एक महिला को आगे करके, उसके अधिकारों को पुरुषों के राजनीतिक वर्चस्व की बलि वेदी पर क्यों कुर्बान किया जाता है? जब तक महिला आरक्षण के पीछे की भावना को पुरुष राजनीतिज्ञ स्वीकार नहीं करते, तब तक राजनीति में महिलाओं को अपनी कुर्बानी देते रहने से बेहतर है कि ऐसे स्थानों पर आरक्षण को समाप्त कर दिया जाए, ताकि कम से कम महिलाएँ दूसरे क्षेत्रों में अपने दम खम का परचम लहरा सकें।
