दृष्टिकोण: नियति बनाम यांत्रिक त्रुटियाँ , असुरक्षित यात्राओं की चिंता

लेखक: डॉ. सुधाकर आशावादी | प्रस्तुति: विनायक फीचर्स
सभ्य समाज जैसे-जैसे तकनीकी उन्नति की ओर बढ़ रहा है, वैसे-वैसे वह जीवन की मौलिकता और मानवीयता से दूर होता जा रहा है। आज का जीवन एक यंत्र की तरह संचालित हो रहा है—निश्चित नियमों, रूटीन और मशीनों पर निर्भर। ऐसे में सवाल उठता है कि हम अपनी नियति को दोष दें या फिर उस यांत्रिक प्रणाली को, जिस पर हमने अपने जीवन की सुरक्षा सौंप दी है?
असुरक्षा का बदलता परिदृश्य
हर दिन सामने आने वाली दुर्घटनाएँ इस प्रश्न को और गहरा बना देती हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि मृत्यु की कोई पूर्व सूचना नहीं होती। जीवन और मृत्यु के बीच की रेखा कब धुँधली हो जाए, कोई नहीं जानता। कोई अस्पताल में जीवन की अंतिम घड़ी गिन रहा होता है और चमत्कारिक रूप से स्वस्थ हो जाता है, वहीं कोई अपने परिवार के साथ पर्यटन पर निकलता है और अचानक काल की पकड़ में आ जाता है।
दुर्घटनाएँ कभी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में आती हैं, तो कभी मानवीय चूक के कारण। कोई अमर नहीं होता—यदि धन से अमरता खरीदी जा सकती, तो शायद धनी लोग कभी नहीं मरते।
वास्तविकताएँ जो झकझोर देती हैं
भारत में लगातार हो रही दुर्घटनाएँ—चाहे वह आतंकी हमलों से जुड़ी हों, विमान दुर्घटनाएँ हों या फिर पुलों के गिरने जैसी घटनाएँ—यह संकेत देती हैं कि कहीं न कहीं प्रणालियों की विफलता के साथ-साथ नियति का हस्तक्षेप भी जीवन को प्रभावित करता है।
हाल ही में अहमदाबाद में एयर इंडिया की उड़ान के टेक-ऑफ के समय हुई दुर्घटना, जिसमें विमान के साथ मेडिकल हॉस्टल में भोजन कर रहे कुछ छात्रों की जान गई, यह दर्शाता है कि दुर्घटनाएँ सिर्फ यात्रा तक सीमित नहीं, बल्कि उनके प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में महसूस किए जाते हैं।
इसी प्रकार पुणे में इंद्रायणी नदी पर बने 30 साल पुराने पुल के ढहने की घटना, जिसमें कुछ लोग सेल्फी लेने के दौरान ही जलसमाधि ले बैठे—यह सब घटनाएँ हमें अकल्पनीय और असहज प्रश्नों से रूबरू कराती हैं।
यात्रा सुविधाएँ या खतरे का रास्ता?
उत्तराखंड जैसे क्षेत्रों में, जहाँ धार्मिक पर्यटन का बोलबाला है, हेलीकॉप्टर सेवाओं की शुरुआत श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए की गई थी। लेकिन खराब मौसम या यांत्रिक विफलता के कारण बार-बार होने वाली आपात लैंडिंग और दुर्घटनाएँ इन सेवाओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठाती हैं। तकनीकी सुविधाओं पर हमारी निर्भरता कहीं न कहीं हमें अधिक असुरक्षित बना रही है।
हर वर्ष दोहराई जाती त्रासदी
मानसून आते ही देश भर में जर्जर इमारतों के गिरने से दर्जनों जानें जाती हैं। ये घटनाएँ वर्षों से दोहराई जा रही हैं, फिर भी व्यवस्था केवल मुआवज़ा देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती है। राजनेता और मानवाधिकार संगठन हादसों के बाद सक्रिय होते हैं, लेकिन सुधार की दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं होता।
आवश्यक है नीति-निर्माण में संवेदनशीलता
क्या अब यह समय नहीं आ गया है कि प्राकृतिक आपदाओं और मानवीय चूकों से होने वाली दुर्घटनाओं की निष्पक्ष और गैर-राजनीतिक समीक्षा की जाए? दुर्भाग्य से हमारे राष्ट्रीय विमर्श में जनस्वास्थ्य, जनसुरक्षा और संरचनात्मक सुधार जैसे गंभीर विषय राजनीतिक मुद्दों की भीड़ में खो जाते हैं। राष्ट्रहित के गंभीर प्रश्न, वोट बैंक की राजनीति की भेंट चढ़ जाते हैं।