जब लोकमान्य तिलक के वकील बने मोहम्मद अली जिन्ना – एक ऐतिहासिक मुकदमे की कहानी

 
When Jinnah Fought Tilak's Case: The Untold Story of a Historic Legal Battle

आज हम बात करेंगे indian freedom struggle के एक ऐसे पल की, जब दो दिग्गज हस्तियां  - लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना - एक ऐतिहासिक कोर्ट केस में आमने-सामने आए। क्या हुआ था इस केस में? क्यों जिन्ना ने तिलक का केस लड़ा? और इसका नतीजा क्या रहा? चलिए, इस कहानी को शुरू से जानते हैं। 

बाल गंगाधर तिलक, जिन्हें लोग प्यार से "लोकमान्य" कहते थे, indian freedom struggle के सबसे बड़े योद्धाओं में से एक थे। उनका जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरी में हुआ था। तिलक न सिर्फ एक freedom fighter थे, बल्कि एक विद्वान, गणितज्ञ, पत्रकार और समाज सुधारक भी थे। उन्होंने मराठी में केसरी और अंग्रेजी में मराठा अखबार शुरू किए, जिनके जरिए वो ब्रिटिश हुकूमत की आलोचना करते थे।  तिलक का नारा, "स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूंगा," उस समय के भारतीयों के दिलों में आजादी की आग जला गया। लेकिन उनकी बेबाक लेखनी और क्रांतिकारी विचारों की वजह से ब्रिटिश सरकार उन्हें "भारतीय अशांति का जनक" कहती थी। तिलक को कई बार जेल हुई, और आज हम बात करेंगे उनके 1908 और 1916 के उन मुकदमों की, जहां मुहम्मद अली जिन्ना ने उनकी पैरवी की।

साल 1908। भारत में स्वतंत्रता संग्राम जोर पकड़ रहा था। 30 अप्रैल 1908 को दो युवा क्रांतिकारी, खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मुजफ्फरपुर में जज किंग्सफोर्ड पर बम हमला किया। उनका निशाना जज थे, लेकिन गलती से दो ब्रिटिश महिलाओं की मौत हो गई। खुदीराम को गिरफ्तार कर लिया गया, और उन पर मुकदमा चलाया गया।  तिलक ने अपने अखबार केसरी में इस घटना के समर्थन में लेख लिखा। उन्होंने क्रांतिकारियों के जज्बे की तारीफ की और ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों की कड़ी आलोचना की। ये  लेख ब्रिटिश हुकूमत को नागवार गुजरा। 3 जुलाई 1908 को तिलक को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।  मुकदमा बॉम्बे हाई कोर्ट में चला। इस केस की सुनवाई एक पारसी जज, जस्टिस दिनशॉ दावर कर रहे थे। तिलक ने शुरू में अपना पक्ष खुद रखने की कोशिश की, लेकिन उनका फोकस राजनीतिक तर्कों पर था।

 ब्रिटिश सरकार ने इसे उनके खिलाफ इस्तेमाल किया। यहीं पर मुहम्मद अली जिन्ना की एंट्री हुई।  जिन्ना उस समय एक युवा और प्रतिभाशाली वकील थे। उन्होंने तिलक को सलाह दी कि केस को कानूनी आधार पर लड़ना जरूरी है, न कि सिर्फ राजनीतिक तर्कों पर। लेकिन तिलक अपने सिद्धांतों पर अडिग थे। उन्होंने कोर्ट में कहा, "मैं स्वराज की मांग करता हूं, और ये मेरा हक है।" जिन्ना ने पूरी कोशिश की, लेकिन ब्रिटिश कोर्ट ने तिलक को दोषी ठहराया और उन्हें 6 साल की सजा सुनाई। तिलक को बर्मा  की मांडले जेल में भेज दिया गया, जहां उन्होंने अपनी प्रसिद्ध किताब गीता रहस्य लिखी।

1914 में तिलक जेल से रिहा हुए और फिर से स्वतंत्रता आंदोलन में जुट गए। उन्होंने 1916 में होम रूल लीग की स्थापना की और स्वराज की मांग को और तेज किया। लेकिन उनकी बेबाकी फिर से ब्रिटिश सरकार के निशाने पर आई। 1916 में तिलक पर एक बार फिर राजद्रोह का आरोप लगा। इस बार उनके भाषणों में स्वशासन की वकालत को आधार बनाया गया।  इस केस में भी जिन्ना तिलक के वकील बने। लेकिन इस बार जिन्ना ने पहले से ज्यादा सतर्कता बरती। उन्होंने तर्क दिया कि तिलक के भाषण नौकरशाही की आलोचना करते हैं, न कि ब्रिटिश राज्य की। यह एक मजबूत कानूनी दलील थी। इतिहासकार एजी नूरानी के मुताबिक, तिलक इस बार भी केस को राजनीतिक रंग देना चाहते थे, लेकिन जिन्ना ने उन्हें कानूनी रास्ते पर रखा।  जिन्ना की शानदार वकालत का नतीजा यह रहा कि तिलक को 20,000 रुपये की जमानत पर रिहा कर दिया गया। यह तिलक के लिए बड़ी जीत थी, क्योंकि यह पहली बार था जब वे राजद्रोह के आरोप में जेल जाने से बच गए। इस केस ने जिन्ना की कानूनी प्रतिभा को भी देश के सामने ला दिया। 

interesting  बात ये है कि तिलक और जिन्ना के बीच कई मुद्दों पर मतभेद थे। तिलक गरम दल के नेता थे, जो उग्र राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे, जबकि जिन्ना उस समय नरमपंथी विचारधारा के करीब थे। फिर भी, आजादी के लिए दोनों का जुनून उन्हें एक साथ लाया।  1916 में तिलक और जिन्ना ने मिलकर लखनऊ पैक्ट पर हस्ताक्षर किए, जिसमें हिंदू-मुस्लिम एकता और स्वराज के लिए साझा संघर्ष की बात थी। बीबीसी के एक लेख के मुताबिक, अगर यह एकता बनी रहती, तो शायद भारत का विभाजन टल सकता था। जिन्ना ने तिलक के लिए जो किया, वह सिर्फ एक वकील का फर्ज नहीं था, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान का प्रतीक था। 

यह कहानी हमें सिखाती है कि स्वतंत्रता संग्राम में हर व्यक्ति का योगदान अनमोल था। तिलक ने अपनी लेखनी और साहस से लाखों भारतीयों को प्रेरित किया, तो जिन्ना ने अपनी कानूनी प्रतिभा से तिलक जैसे नेताओं को बचाया। ये  भी दिखाता है कि उस समय हिंदू-मुस्लिम एकता कितनी मजबूत थी।  आज जब हम आजादी का जश्न मनाते हैं, तो हमें तिलक और जिन्ना जैसे नायकों को याद रखना चाहिए, जिन्होंने अपने-अपने तरीके से भारत के लिए लड़ा। 

तो ये  थी बाल गंगाधर तिलक और मुहम्मद अली जिन्ना की उस ऐतिहासिक कहानी का सच। आपको ये कहानी कैसी लगी ? कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं। 

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