जब जूता उछाला गया: अभिव्यक्ति का प्रतीक बनाम अपमान का हथियार

When the shoe was thrown: Symbol of expression vs. weapon of insult
 

(सुधाकर आशावादी-विनायक फीचर्स) एक समय था जब बड़ी हवेलियों में 'जूतम-पैजार' (मारपीट) आम बात हुआ करती थी। उस दौर में जूते सस्ते थे, इसलिए पहनने के अलावा उन्हें एक-दूसरे पर फेंकने में भी संकोच नहीं होता था। आज वह ज़माना बदल गया है। अगर आज कोई किसी सभा में जूता उछालता भी है, तो वह अक्सर प्रचार पाने की एक सस्ती कला बनकर रह जाती है, उसका मूल प्रभाव गौण हो जाता है।

एक युग वह भी था जब विचारक और साहित्यकार 'जूतों के प्रतीक' का भरपूर उपयोग करते थे। वे शब्दों के वार से ही दुश्मन को इतनी पीड़ा पहुँचाते थे कि साक्षात् जूते मारने से भी उतना कष्ट न हो। अक्सर चर्चा होती थी कि अमुक साहित्यकार ने अमुक व्यक्ति को "जूते से भिगो-भिगो कर मारा" है। यह प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी, जो शब्द शक्ति से किसी की प्रतिष्ठा को धूल में मिला देती थी।

जूता: गरिमा भंग करने का पर्याय

 

आज भी जूता किसी के अपमान या मानहानि का पर्याय बना हुआ है। गली-बाज़ार से लेकर सार्वजनिक मंचों तक, कभी किसी मनचले पर नवयुवती, तो कभी आवेश से भरा शख्स किसी दूसरे पर जूता उछालता नज़र आता है। मगर, हर जगह इस 'अस्त्र' का असर एक जैसा नहीं होता।

असली सवाल यह है कि जूता किस जगह, किस व्यक्ति पर और किस इरादे से उछाला गया। चुनाव प्रचार के दौरान जब कोई नाराज़ मतदाता किसी नेता पर जूता उछालता है, तो गरिमा जूते की नहीं, बल्कि उस व्यक्ति की होती है जिस पर वह उछाला जाता है। यह एक तरह का हिंसक विरोध है।

साहित्यकार तो शब्दों के जूतों का प्रयोग प्रतीकात्मक ढंग से करते हैं, लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब कोई बुद्धिजीवी आवेश में आकर प्रत्यक्ष रूप से जूता उछालता है। वह आवेश में तो फेंक देता है, मगर बाद में ही उसे अपने 'जूते की मारक क्षमता' का वास्तविक अंदाज़ा होता है।

 

अभिव्यक्ति की आज़ादी और जूते की बहस

 

हमारे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी की दुहाई हर बात पर दी जाती है। जब कोई जूता उछालता है, तो वह भी अपने कृत्य को 'अभिव्यक्ति की आज़ादी' से जोड़ लेता है। यहीं से बहस शुरू होती है कि यह कृत्य विरोध है या आपराधिक हमला।

एक जूता उछलते ही किस्से-कहानियाँ उछलने लगते हैं। भले ही वह निशाने से चूक गया हो, पर उसे ऐसे प्रचारित किया जाता है जैसे किसी ने AK-47 जैसा कोई जानलेवा अस्त्र चला दिया हो।

हाल ही में, एक तथाकथित बुद्धिजीवी शख्स ने दूसरे बड़े बुद्धिजीवी की हवेली में जूता उछाला। जूता कितनी ऊँचाई तक गया या कहाँ गिरा, इस पर कोई चर्चा नहीं हुई, लेकिन हंगामा ज़ोरदार हो गया। जूते के समर्थन और विरोध में अनेक स्वर उभरे: किसी ने इसे सामंतवाद के विरुद्ध बताया, तो किसी ने घृणा का प्रतीक। ऐसे में, जूता स्वयं भी भ्रमित है कि वह वास्तव में क्या है— पैरों का रक्षा कवच, या किसी के मान को क्षति पहुँचाने के लिए प्रयोग किया जाने वाला अघोषित हथियार?

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