कौन है सबसे बड़ा: सत्ता, संगठन, राजनेता या वोट बैंक?

डॉ. हरीशकुमार सिंह | विनायक फीचर्स
भारतीय राजनीति की त्रिमूर्ति—सत्ता, संगठन, और राजनेता—हमेशा ही बहस का विषय रही हैं। इन तीनों में संतुलन बना रहे तो राजनीति व्यवस्थित प्रतीत होती है, लेकिन जैसे ही इनके बीच वर्चस्व की होड़ शुरू होती है, सवाल खड़ा हो जाता है—आखिर इनमें सबसे बड़ा कौन है?
संगठन: राजनीति की रीढ़
अगर गहराई से देखा जाए, तो शुरुआत संगठन से होती है। संगठन ही वह ढांचा है जो राजनेताओं को मंच देता है, उन्हें चुनावी टिकट देता है और तय करता है कि कौन सत्ता की कुर्सी पर बैठेगा। संगठन के बिना न नेता टिक पाते हैं, न सत्ता संचालित हो पाती है। यही कारण है कि संगठन और उसका प्रमुख अक्सर 'राजनीति का निर्णायक' समझा जाता है।
जो नेता संगठन को दरकिनार कर खुद से चुनाव लड़ते हैं, उनका हश्र अक्सर हार के रूप में सामने आता है।
सत्ता का प्रभाव: संगठन पर हावी नेतृत्व
लेकिन राजनीति में समीकरण कब बदल जाएं, कहना मुश्किल है। जब संगठन का मुखिया खुद चुनाव लड़कर सत्ता पर काबिज हो जाता है, और फिर संगठन की कमान अपने किसी करीबी या वफादार को सौंप देता है, तब शक्ति का केंद्र बदलने लगता है। अब संगठन सत्ता के इशारों पर चलने लगता है। ऐसे में संगठन, सत्ता की जेब में सिमट जाता है, और सबसे प्रभावशाली इकाई बन जाती है—सत्ता।
जब राजनेता हो जाए पूर्ण बहुमत का स्वामी
राजनीतिक परिदृश्य तब और रोचक हो जाता है जब कोई एक राजनेता, अपनी लोकप्रियता और विशाल जनसमर्थन के बल पर सत्ता में आता है। अब उसे न गठबंधन की चिंता होती है, न संगठन की स्वीकृति की ज़रूरत। वह अपने निर्णय खुद लेता है, और बहुमत के कारण किसी भी प्रकार के विरोध से बेपरवाह रहता है।
ऐसा नेता फिर पदों पर नियुक्ति हो या नीतिगत बदलाव—सब कुछ अपने विवेक से करता है। वरिष्ठता, अनुभव या संगठन की सलाह—सब अप्रासंगिक हो जाते हैं। यह सब लोकतंत्र के भीतर छिपे तानाशाही के संकेत भी हो सकते हैं।
न्यायपालिका: जब सब मौन हों, तब उठती है आवाज़
कभी-कभी ऐसा समय आता है जब सत्ता, संगठन और राजनेता—तीनों ही आंखें मूंद लेते हैं, और किसी विवादास्पद बयान या कृत्य पर कोई ठोस कदम नहीं उठाते। तब देश की अंतिम आशा बनकर सामने आती है—न्यायपालिका। वह स्वप्रेरणा से संज्ञान लेकर कार्यवाही करती है, और वही होती है जो लोकतंत्र की रक्षा करती है।
लेकिन, जब न्यायपालिका की सख्ती के बावजूद किसी नेता की कुर्सी सलामत रहती है, तो सवाल उठता है—आख़िर ऐसा क्यों?
सबसे बड़ा कौन? उत्तर है—वोट बैंक
राजनेता की असली ताकत होती है उसका वोट बैंक। यही वह शक्ति है जो संगठन को भी डराती है, सत्ता को भी नियंत्रित करती है और कभी-कभी न्यायपालिका के निर्णयों को भी ठंडा कर देती है।
इसलिए अगर पूछा जाए कि राजनीति में सबसे बड़ा कौन है, तो उत्तर सीधा है—वोट और वोट बैंक। यही लोकतंत्र की असली धुरी है, और वहीं से तय होता है कि किसकी सुनी जाएगी, और कौन चलेगा।