महिला संन्यासिनियों के अखाड़े हाशिये पर क्यों

Why arenas of women ascetics are marginalized?
 
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(विनायक फीचर्स – विशेष रिपोर्ट)
लेखक: विजय कुमार शर्मा  :  भारतीय सनातन परंपरा में नारी को सदैव शक्ति, ज्ञान और तपस्या का प्रतीक माना गया है। देवी सरस्वती, दुर्गा, सीता, गार्गी और मैत्रेयी जैसे नाम इस बात के जीवंत प्रमाण हैं। बावजूद इसके, जब आज की महिलाएं राजनीति, विज्ञान, शिक्षा और रक्षा जैसे क्षेत्रों में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं, तो फिर धार्मिक-सांस्कृतिक संस्थानों — खासकर अखाड़ों — में उन्हें बराबरी क्यों नहीं मिल पा रही?

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अखाड़ा प्रणाली में महिला संतों की स्थिति

भारत में वर्तमान में 13 प्रमुख अखाड़े सक्रिय हैं, जिनमें जूना, अग्नि, निर्मल, निरंजनी, महानिर्वाणी आदि प्रमुख हैं। लेकिन सभी अखाड़ों की कमान पुरुष संतों के हाथों में है। महिलाओं को आमतौर पर केवल "साध्वी मंडली" के नाम से पहचाना जाता है, जिनकी स्थिति मुख्य अखाड़ों की उपशाखा जैसी होती है और उनके पास कोई स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता।
2013 में महिला अखाड़ा परिषद की स्थापना जरूर हुई, लेकिन उसे आज तक अखाड़ा परिषद की आधिकारिक मान्यता नहीं मिली, और ना ही उसे व्यापक धार्मिक-सामाजिक सहयोग प्राप्त हुआ।
क्या साध्वियों को मिलेगा समान अधिकार?
नासिक कुंभ 2027 में यह प्रश्न फिर से प्रासंगिक होने वाला है। कुंभ जैसे महापर्व में पारंपरिक अखाड़ों को शाही स्नान, शोभायात्रा, ध्वजारोहण जैसे विशेषाधिकार मिलते हैं, लेकिन महिला अखाड़ों को अब भी इनसे वंचित रखा जाता है।
2016 के उज्जैन सिंहस्थ में महिला अखाड़ा पहली बार सामने आया था, लेकिन उन्हें स्नान-क्रम में बहुत पीछे स्थान मिला।
2021 हरिद्वार कुंभ में कुछ हद तक स्वीकार्यता बढ़ी, लेकिन यह "पारंपरिक अखाड़ा अधिकार" की श्रेणी में नहीं गिना गया।
यदि 2027 के कुंभ में भी साध्वी अखाड़ों को समान दर्जा नहीं दिया गया, तो यह न केवल धार्मिक असमानता का प्रतीक होगा, बल्कि स्वयं सनातन परंपरा की "शक्ति-पूजन" की अवधारणा पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करेगा।
समाधान की दिशा क्या हो सकती है?
वक्त आ गया है कि धर्म में समानता और समावेशिता की व्याख्या नए सिरे से हो। धर्मगुरुओं, अखाड़ा परिषद, सरकार और आम जनता को मिलकर यह सोचना होगा कि:
> "क्या शिव बिना शक्ति के पूर्ण हैं?"
यदि साध्वियां भी तप, त्याग, विद्या और वैराग्य में पुरुष संन्यासियों की तरह ही समर्पित हैं, तो उन्हें भी समान अधिकार और सम्मान मिलना चाहिए।
महिला अखाड़ों के लिए अपेक्षित सुधार:
अखाड़ा परिषद से आधिकारिक मान्यता
स्वतंत्र ध्वज और पहचान
स्नान-क्रम में बराबरी का स्थान
निर्णय प्रक्रिया में सहभागिता
सनातन धर्म की मूल भावना है:
> "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:"
(जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता निवास करते हैं)
यदि इस सिद्धांत को अक्षरशः लागू किया जाए, तो महिला अखाड़ों को सम्मान देना न केवल आवश्यक है, बल्कि यह उसी धर्म की आत्मा का सम्मान भी होगा जो शक्ति और ज्ञान दोनों को समान रूप से पूजता है।

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