आजादी के 77 वर्ष बाद भी  स्थापित नही  हुई  सेनानी की प्रतिमा 

Even after 77 years of independence, the statue of the warrior has not been installed
Even after 77 years of independence, the statue of the warrior has not been installed
उत्तर प्रदेश डेस्क लखनऊ (आर एल पांडेय)। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में राजपाट सब छिनने के बाद भी  आजीवन अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वाले गोण्डा - नरेश महाराजा देबी  बक्श सिंह की परम्परा एवं अवध की  उर्वर शौर्य - भूमि  में जन्में गुरु प्रसाद गुप्ता जैसे अनेक सेनानियों ने महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस के आह्वान पर अपना धन सम्पत्ति एवं   वैभव सहित सर्वस्व त्याग कर ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संघर्ष करते हुए भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराया। 


 स्वतन्त्रता सेनानियों  की कड़ी में गुरु प्रसाद गुप्ता एक  ऐसे ही प्रमुख सेनानी हुए जिन्होंने परिवार की करोड़ों की सम्पत्ति से बेदखल होने के बावजूद स्वतन्त्रता आन्दोलन से मुंह नहीं मोड़ा। सेनानी गुरुप्रसाद गुप्ता का जन्म 19 अगस्त सन् 1919 को कृष्ण जन्माष्टमी   केपावन दिवस में नगर के मुहल्ला गोलागंज में एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार में हुआ। पिता रामेश्वर प्रसाद लोहिया धर्मशाला के संस्थापक व नगरसेठ के नाम से विख्यात थे।

वैभवशाली परिवार में जन्में गुरु प्रसाद बचपन से ही शिक्षा के साथ देश प्रेम व राष्ट्रीयता से ओतप्रोत कविता की रचना करने लगे। गांधी और सुभाष से प्रभावित होकर उन्होंने नगर के अग्रणी कांग्रेस नेता बाबू ईश्वर शरण, बाबू लाल विहारी टण्डन, खजुरी के बाबू द्वारिका सिंह, मसकनवा को केन्द्र बनाकर कांग्रेस आन्दोलन चला रहे नेपाल राष्ट्र के पहाड़ी बाबा, बभनान स्थित सिसई रानीपुर के मिश्र परिवार में रह कर  गोण्डा व अयोध्या में आन्दोलन को धार देने वाले सन्याशी व्रह्मचारी बाबा के नेतृत्व में चलने वाले  कांग्रेस के प्रदर्शनों व आन्दोलनों में किशोरावस्था से सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया। ब्रिटिश हुकूमत के रिकार्ड में दर्ज खतरनाक नेता के अभियोग में उन्हें 11 दिसम्बर 1940 को गिरफ्तार किया गया।

अदालत से उन्हें नौ मास और पचास रुपये की सजा हुई। जुर्माना न देने पर उन्हें चार मास अतिरिक्त कारावास झेलना पड़। कारावास के दौरान ही ब्रिटिश सत्ता के कोप से बचने के लिए पिता ने उन्हें अपनी चल अचल सम्पत्ति से बेदखल कर दिया।  अंग्रेजों की सरपरस्ती में व्यापार कर रहे सम्बन्धियों ने भी उनसे नाते-रिश्ते तोड़ लिए।जेल से छूटने के बाद उन्हें सक्रिय राजनीतिक जीवन एवं पारिवारिक जीवन के मध्य सामंजस्य बिठाने के लिए लिए घोर संघर्ष करना पड़ा। सत्ता के दुश्मन और परिजनों से उपेक्षित युवक गुरुप्रसाद को जीविका के लिए घर से पलायन कर वाराणसी में पत्रकारिता के साथ अखबार बेंचना पड़ा।

कुछ वर्षों तक उन्होेंने साइकिल की घंटी बनाने वाली एक फैक्ट्री में नौकरी भी किया। आजादी की रजत जयंती पर 1972 में स्वतन्त्रता सेनानियों के लिए प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने पेन्शन देने की घोषणा की लेकिन घोर आर्थिक संकट और विपन्नावस्था में जीने के  बावजूद उन्होंने पेन्शन फार्म भरने से मना कर दिया। पत्रकारिता में सक्रिय अपने पुत्र अजय गुप्ता के अनुरोध पर पेन्शन फार्म को यह कहकर फाड़ दिया  कि  आजादी के आन्दोलन में हमने इस भाव से  संघर्ष नहीं किया था कि देश आजाद होने पर उन्हें आर्थिक लाभ मिलेगा।
 2 जुलाई 1982 को अंग्रेजों से आजीवन लोहा लेने वाले इस महान योद्धा का निधन हो गया। आजादी के आन्दोलन में पैतृक धन सम्पत्ति से लेकर सुख चैन वाले सेनानी गुरुप्रसाद के तीन पुत्रों में किसी  के पास अपना मकान तक नहीं है। दो बेटे वाराणसी एवं एक बेटा गोण्डा में किराये के मकान में रहते हैं। ऐसे समर्पित सेनानी की याद में नगर के किसी चौराहे पर प्रतिमा स्थापित करने की मांग वर्षों से लाल फीताशाही के कारण साकार नही हो सकी ।

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