Guru Aur  Shishya || गुरु-शिष्य का सबंध

Guru Aur  Disciple ||  Relationship between Guru and disciple
Guru Aur  Shishya || गुरु-शिष्य का सबंध

(डॉ. परमलाल गुप्त - विनायक फीचर्स) हमारे भारतीय अद्वैतवादी दर्शन के अनुसार मनुष्य तो क्या सभी प्राणी ईश्वर का अंश होने से समान होते हैं- 'आत्मवत सर्व भुतेषु’। परंतु इनमें बुद्धि की भिन्नता होती है। मनुष्यों में भी ज्ञान का अंतर होता है। इस ज्ञान को जाग्रत करने के लिए विभिन्न गुरुओं की आवश्यकता होती है। परिवार, समाज, शिक्षण संस्थाएं आदि मनुष्य को ज्ञान देती हैं। सबसे प्रथम गुरु तो बच्चे की मां ही होती है। फिर परिवार, विद्यालय, समाज आदि। इसलिए भारतीय संस्कृति में मनुष्य पर तीन ऋण - 1. पितृ-ऋण, 2. गुरु-ऋण और 3. देव ऋण चुकाने का विधान है।

ईमानदारी और लगन से शिष्य को जीवन के व्यवहारिक ज्ञान के साथ उसे आत्म ज्ञान कराता था

पहले भारत में शिक्षा गुरुकुलों में दी जाती थी। धर्म और जीवन एक-दूसरे से अभिन्न थे। इसलिए बच्चों का एक ही गुरु होता था। कुछ विषयों में धर्म के अनुसार भी अलग गुरु थे जो उस कला में निपुण होते थे। शिक्षा का व्यावसायिक रूप नहीं था। गुरु का जीवन त्यागमय एवं आदर्श होता था। छात्र से कोई शुल्क नहीं लिया जाता था।

उल्टे उसके जीवन निर्वाह की व्यवस्था गुरुकुल करता था। गुरुकुल किसी के अधीन भी नहीं होता था। वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होता था। इसके लिए आश्रम में कृषि भूमि और गौशालाएं होती थीं। शिष्यों को सब काम करने पड़ते थे। आवश्यकता पडऩे पर उन्हें भिक्षा के लिए भी जाना पड़ता था। गुरुकुल की नियमित दिनचर्या होती थी। गुरु का कोई स्वार्थ किसी शिष्य से नहीं होता था। वह हृदय से शिष्य का कल्याण चाहता था। इसलिए वह पूरी ईमानदारी और लगन से शिष्य को जीवन के व्यवहारिक ज्ञान के साथ उसे आत्म ज्ञान कराता था। शिष्य इसी कारण गुरु पर पूरी श्रद्धा रखते थे और उसकी हर आज्ञा का पालन करते थे। बच्चे के माता-पिता इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करते थे।

गुरु समाज का दिशा-निर्देशक भी होता था और राजा तक उसका सम्मान करता था। इसलिए गुरु और शिष्य के संबंध बहुत आत्मीय होते थे। शिष्य गुरु के लिए हर त्याग करने के लिए तैयार होता था। गुरु दक्षिणा के समय गुरु उससे कुछ भी मांग सकता था, परंतु गुरु उसका कल्याण ही चाहता था, धन-दौलत नहीं।

शिष्य के निजी जीवन से गुरु को कोई मतलब नहीं होता

वर्तमान समय में शिक्षा ने व्यावसायिक रूप धारण कर लिया है। उसका धर्म से कोई संबंध नहीं रहा। गुरु, धन (वेतन) लेकर विद्यालयों में विभिन्न विषय पढ़ाते हैं। विद्यालयों में एक निश्चित पाठ्यक्रम होता है, शिक्षा उसी तक सीमित रहती है। शिक्षा का अधिकतर उद्देश्य धन कमाना या नौकरी ्रप्राप्त करना होता है। अभियांत्रिकी, स्वास्थ्य विज्ञान, कृषि, वाणिज्य, व्यवसाय-प्रबंधन विज्ञान तथा अन्य अनेक विषयों की शिक्षा इसी उद्देश्य से दी जाती है। इसके लिए शिष्य को भारी शुल्क देना पड़ता है और साथ में अपने जीवन-निर्वाह का स्वयं प्रबंध करना पड़ता है। शिष्य के निजी जीवन से गुरु को कोई मतलब नहीं होता। वह अपने विषय के पुस्तकीय ज्ञान से शिष्यों को व्याख्यान देता है। अत: शिष्य और गुरु के संबंधों में कोई निकटता नहीं होती। शिष्य का उद्देश्य डिग्री प्राप्त करना होता है।

इसलिए वह कुछ ऐसा नहीं करता कि इसमें बाधा हो। इसमें हृदय नहीं औपचारिकता होती है। सह शिक्षा के प्रचलन से छात्र-छात्राओं के मध्य यौन-संबंध होना तो आम बात है। गुरु और शिष्या या गुरुआनी और शिष्य के बीच भी यौन संबंध पनपते हैं। इन्हें प्रेम का नाम देकर नैतिक रूप भी दे दिया जाता है। कुछ रूपों में यौन शोषण भी होता है। अब तो किशोरों और किशोरियों को यौन शिक्षा की भी वकालत की जा रही है। तब गुरु व्यावहारिक रूप में शिष्या को और गुरुआनी व्यावहारिक रूप में शिष्य को यह शिक्षा दे सकती है। इन सबमें गुरु-शिष्य का संबंध सम्मान का नहीं रह जाता।

भारत में अनपढ़, पढ़े-लिखे ऐसे लोगों की कमी नहीं है

आजकल की शिक्षा में धर्म और नैतिकता का समावेश नहीं है। इसलिए इसके लिए अलग से अनेक धर्मगुरु बन गए हैं। हिन्दुओं में धर्म गुरु, साधु, संन्यासी, मठाधीश, महंत, योगी, आश्रमवासी, राजयोगी, तपस्वी, पौराणिक, वेदान्ती, गृहस्थ, कर्मकाण्डी आदि अनेक प्रकार हैं। इनमें से बहुत से किसी व्यवसायी की ही तरह शिष्य बनाकर उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन देकर दक्षिणा प्राप्त करते हैं। जैसे कथावाचकों और प्रवचनकारों का व्यवसाय है कि वे इसके लिए मोटी रकम लेते हैं।

इनकी भी श्रेणियां हैं। जो जितने अच्छे ढंग से अपना कार्य संपादन करता है, उसे धनी लोगों द्वारा बड़ी रकम मिलती है। जो ख्याति प्राप्त नहीं है, उसे कम रकम से संतोष करना पड़ता है। प्रचार-तंत्र भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत में अनपढ़, पढ़े-लिखे ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो किसी चमत्कार की अफवाह से प्रभावित हो जाते हैं। तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेत, पीर-फकीर, संत-महंत यहां तक कि गृहस्थ कर्म-काण्डियों के चक्कर में किसी को भी अपना गुरु बना लेते हैं। गुरु का ज्ञान कितना है, उसमें कितना आडम्बर और धोखेबाजी है, यह शिष्य नहीं समझ पाते। ऐसे बहुत से गुरुओं ने आश्रमों के नाम पर आलीशान भवन बनवा लिए हैं।

उनके ऐशोआराम के सब साधन जुटाकर वे राजसी जीवन बिताते हैं। समय-समय पर शिष्यों को वे कुछ न कुछ धार्मिक उपदेश देते रहते हैं। कुछ गुरु तो अच्छी सेवा के लिए शिष्य बनाते हैं। ऐसे बहुत से बेकार और विवश युवक और युवतियां मुफ्त में जीवन-यापन की सुविधाएं मिलने पर इनके शिष्य बन जाते हैं। कुछ गुरु तपस्या और भजन-पूजन के साथ गांजा, चरस आदि का नशा करते हैं और शिष्य को भी करवाते हैं। कोई युवती हुई तो वह उनकी योग-मुद्रा बन जाती है, इस गुरु और शिष्य के धंधे में भारी धोखेबाजी है।

भारतीय लोगों की ऐसी ही स्थिति बनी रहे। इसलिए वह इन गुरुओं को आश्रय देता

पूंजीपति और विदेशी तंत्र चाहता है कि भारतीय लोगों की ऐसी ही स्थिति बनी रहे। इसलिए वह इन गुरुओं को आश्रय देता है और जनता को भी गुमराह करता है। ईश्वर, धर्म और आध्यात्म का सच्चा ज्ञान होने पर न तो गुरु किसी को शिष्य बनाता है और न शिष्य किसी गुरु के चक्कर में आता है। शिष्य में आत्मज्ञान कैसे उत्पन्न हो, इसके लिए शिष्य को स्वयं प्रयत्नशील होना अनिवार्य है। उसमें यदि सच्ची लगन है, तो उसे सत्संग, स्वाध्याय, चिंतन, ध्यान आदि से आत्मज्ञान हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास का कथन है-

जाकर जापर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू॥

ईश्वर से सच्चा प्रेम उसे ईश्वर का अर्थात् आत्मज्ञान करा देता है। उसे ऐसा प्रकाश मिल जाता है, जो जीवन को सही परिप्रेक्ष्य में दिख सके। बहुत से लोग जो भौतिक लोभ-लालच में पड़कर गुरु बनाते हैं, वह तो बिल्कुल मूर्खता है। अपने विवेक, लगन और श्रम करने से ही भौतिक लाभ हो सकता है। कभी-कभी मनुष्य के मार्ग से भटकने की आशंका होती है। ऐसी दशा में धर्म-गुरुओं से नहीं अनुभवी, सच्चे और निकट के लोगों से सलाह लेनी चाहिए।

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