हां, रोटी ने दिलाई आज़ादी 

Yes, bread gave us freedom
हां, रोटी ने दिलाई आज़ादी 
क्या आपको मालूम है कि अंग्रेज़ हमारे वीर योद्धाओं से और उनकी बनाई रोटी से बहुत डरते थे... अब आप सोचेंगे कि चलो वीर योद्धाओं तक तो ठीक है लेकिन भला रोटी से कैसे कोई डर सकता है... हमें पता है कि आप हमारी बात का यकीन नहीं करेंगे, लेकिन जब आप ये पूरा वीडियो देख लेंगे तो आपको हमारी बात पर यकीन अपने आप ही हो जाएगा...

आज हमारे महान भारत देश को आज़ाद हुए 77 साल पूरे हो गए

आज हमारे महान भारत देश को आज़ाद हुए 77 साल पूरे हो गए हैं.. इस हिसाब से देश आज अपना 78वां स्वतंत्रता दिवस बड़े ही गर्व और धूमधाम से मना रहा है. अंग्रेजों ने हमारे देश पर करीब 200 सालों तक राज किया था... इन 200 सालों में भारतवासियों पर कितने ज़ुल्म ढाए गए, जिसकी कोई इन्तहां नहीं..हमारे देश के शूरवीरों ने देश को आज़ादी दिलाने के लिए हंसते-हंसते अपने प्राण निछावर कर दिए. स्वतंत्रता सेनानियों ने डटकर अंग्रेजों का सामना किया और आखिर में 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजी हुकूमत से आजादी दिलाई दी... हालांकि, यहां तक पहुंचना आसान नहीं था... इसके लिए भारत में कई आंदोलन चले, जिसमें से एक अनोखे आंदोलन के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं..

इतिहास के पन्नों में चपाती आंदोलन के नाम से दर्ज है

जिस आंदोलन का हम जिक्र कर रहे हैं, वो इतिहास के पन्नों में चपाती आंदोलन के नाम से दर्ज है. चपाती आंदोलन के तहत, अंग्रेज भारतीय रोटियों से काफी डरने लगे थे... क्या था ये चपाती आंदोलन और इससे क्यों डरते थे अंग्रेज, चलिए आपको डिटेल में बताते हैं..साल 1857 में चपाती आंदोलन की शुरुआत उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले से हुई थी... इस आंदोलन के तहत आंदोलनकारी बड़ी संख्या में रोटियां बनाते थे... उस समय ये उत्तर भारत के कई गांवों में फैल गया था, जिससे ब्रिटिश की नाक में दम हो गया था... 

जब चपाती आंदोलन शुरू हुआ, तो मथुरा के एक मजिस्ट्रेट Mark Thornhill ने इसकी जांच की..उन्होंने अपनी जांच में पाया कि बड़ी संख्या में चपातियों को बनाकर 300-300 किलोमीटर तक भेजा जा रहा था. कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि उस समय जंगलों से एक शख्स आता था, वो गांव के चौकीदार को रोटियां देकर और रोटियां बनाने के लिए कहकर चला जाता था.. चौकीदार अपनी पगड़ियों में रोटियां छिपाकर रखते थे..

रोटियों में अंग्रेजों के खिलाफ कुछ सीक्रेट नोट्स को छिपाकर एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता था

चपाती आंदोलन के दौरान श्रीरामपुर में छपने वाले अंग्रेजी के एक अखबार The Friends of India ने 5 मार्च, 1857 के अपने अंक में कहा था कि जब रोटियां हर किसी थाने में पहुंचती थी, तो ब्रिटिश इसे लेकर दुविधा में पड़ने के साथ डर जाते थे... चपाती आंदोलन के दौरान इसके original source का किसी को भी पता नहीं चल सका था... कुछ लोगों का मानना था कि इसे अंग्रेजों ने ही शुरू कराया था, जबकि कुछ लोगों का ये मानना था कि इन रोटियों में अंग्रेजों के खिलाफ कुछ सीक्रेट नोट्स को छिपाकर एक जगह से दूसरी जगह भेजा जाता था..हालांकि, इसे लेकर कुछ Proof नहीं मिल सके.इस आंदोलन के तहत रोटियां बनने के बाद एक ही रात में ब्रिटिश मेल से तेज सप्लाई होती थीं... इन रोटियों को फरुखाबाद से गुड़गांव और अवध से रोहिलखंड होते हुए दिल्ली भेजा जाता था... कुछ रिपोर्ट्स की मानें, तो इन रोटियों में कमल का फूल और बकरी का मांस भेजे जाने की भी बात कही गई है.

हमारे शूरवीरों ने किन मुश्किलों का सामना करके हमें आजादी दिलाई..

अब आप खुद ही सोच लीजिए कि हमारे शूरवीरों ने किन मुश्किलों का सामना करके हमें आजादी दिलाई... अगर हम इस आज़ादी का मायने अभी भी नहीं समझें तो हम अपने साथ अपने देश का भी नुकसान कर देंगे... आखिर में हम आपके लिए कुछ सवाल छोड़ कर जा रहे हैं... क्या सही मायनों में हम आज आजादी पाकर खुश है? क्या हकीकत में हम आजाद भी हुए या नहीं? कहीं सत्ता के लालची लोगों ने सत्ता के साथ-साथ देश का बंटवारा करके हमारी आँखों में धुल तो नहीं झोंकी है? सदियों से भेदभाव और बंटवारे की मार झेल रहे समाजों को क्या वाकई में आजादी के नाम पर चुने गए लोकतंत्र रूपी मंदिर की खुली हवाओं में सांस लेने का सुकून मिला है?

क्या पाखंड और अन्धविश्वास में डूबी जनता को वैज्ञानिक सोच उपलब्ध करवाकर हम सांत्वना देने में सफल हुए

क्या अज्ञानता के अँधेरे में डूबे लोगों के लिए तालीम का मुक्कमल इंतजाम हुआ है? क्या स्वास्थ्य सेवाएं गुरबत में जी रहे लोगों के आँगन तक पहुंची है या पहुँचने की ओर अग्रसर हैं? क्या भूख के भय में जी रहे लोगों के दिलों में विश्वास जगाने को कामयाब हुए है कि अब तुम बेफिक्र काम करो किसी नागरिक की मौत भूख से नहीं होगी? क्या पाखंड और अन्धविश्वास में डूबी जनता को वैज्ञानिक सोच उपलब्ध करवाकर हम सांत्वना देने में सफल हुए है

कि अब आस्था और धर्म के नाम पर फर्जी ठेकेदार तुम्हारा शोषण नहीं कर पाएंगे? क्या गांव के किनारे और अशिक्षा के अंधियारे में धकेले गये लोगों को हमारे शैक्षिक संस्थानों, मंदिरों जैसी हर सार्वजनिक स्थानों पर समानता के साथ-साथ हमसफ़र बनकर चलने का विश्वास दिलाकर दिलों में व्याप्त भेदभाव के भय को दूर कर पाए हैं? अगर इन तमाम सवालों पर आपका जवाब स्पष्ट तौर पर हाँ या ना में नहीं है तो न तो वास्तविक आजादी हमनें पाई है और न ही हम आज़ादी की तरफ बढ़ने का माहौल बना पाए हैं

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