लोकतंत्र में जनभावनाओं का सम्मान क्यों नहीं? 

Why are public sentiments not respected in democracy?
लोकतंत्र में जनभावनाओं का सम्मान क्यों नहीं? 
( निर्मला - विभूति फीचर्स) स्वतंत्र भारत के इतने वर्षों के अनुभव से साबित हो गया है कि हमारे लोकतंत्र में जनभावनाओं की उपेक्षा की गई है। जब तक जनभावनाओं का सम्मान नहीं किया जाता, तब तक लोकतंत्र के मूल्यों को मजबूत नहीं बनाया जा सकता।मतदान करना प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य और गणतांत्रिक अधिकार है परन्तु जिनके मतों के बलबूतों पर जनप्रतिनिधि सरकार बनाते हैं, उन मतदाताओं को क्या मिलता है? हर बार चुनाव से पहले आम जनता के बीच इस प्रश्न का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। जिन सामान्य लोगों के मतों के सहारे जनप्रतिनिधि सत्ता के गलियारे तक पहुंचते हैं, ऐश्वर्य और समृद्धि बटोरते हैं, उन सामान्य लोगों की समस्याओं को सुलझाने के लिए वे क्या करते हैं?

निषेधात्मकता का लाभ कभी एक दल को और कभी दूसरे दल को मिल जाता है

राष्ट्रीय कोष से बड़ी राशि चुनाव के लिए खर्च करने की वजह से विकास के दूसरे महत्वपूर्ण कार्यों का प्रभावित होना स्वाभाविक बात है। राजनीतिक पार्टियां राष्ट्रहित की तुलना में संकीर्ण मानसिकता का परिचय देते हुए निजी फायदे-नुकसान की चिंता ज्यादा करती हैं।चाहे दल बड़े हों या छोटे, आज कोई भी समूचे देश में अपने को प्रभावी नहीं कह सकता। निषेधात्मकता का लाभ कभी एक दल को और कभी दूसरे दल को मिल जाता है। उपेक्षा और दुव्र्यवहार के शिकार राज्यों की क्षेत्रीय आकांक्षाएं भी बढ़ी हैं और उसी हिसाब से क्षेत्रीय दल भी बढ़े हैं जिनके प्रभाव को सहसा नकार देना संभव नहीं है। राजनीतिक पार्टियों का परिवारवाद, प्रभाववाद और आतंक मतदाताओं को आत्मविश्लेषण करने के लिए प्रेरित करता है।

स्वतंत्रता के पश्चात उसकी स्थिति सुधरने की जगह विसंगतियों में उलझती चली गई

जनभावनाओं का निरंतर निरादर होने की वजह से ही आज देश के विभिन्न हिस्सों में असंतोष की चिंगारी फैलती जा रही है। उपेक्षा के कारण जहां आम जनता की स्थिति बिगड़ती गई है, वहीं भाषा, प्रांत, जाति, धर्म की दीवारें ऊंची होती गई हैं। स्वतंत्रता के पश्चात् बुनियादी समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास राष्ट्र के कर्णधारों ने नहीं किया। यही वजह है कि आज भी अशिक्षा, दरिद्रता, पिछड़ापन जैसी प्रमुख समस्याएं राष्ट्र के समक्ष चुनौती बनी हुई हैं। स्वतंत्रता से पूर्व महान स्वतंत्रता सेनानियों ने जिस देश का सपना देखा था, स्वतंत्रता के पश्चात उसकी स्थिति सुधरने की जगह विसंगतियों में उलझती चली गई। सत्ता की लड़ाई के समक्ष राष्ट्रीय प्रश्न गौण होते चले गए।

देश की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए प्रबुद्ध वर्ग के लोग संविधान में संशोधन का सुझाव देते

अब समय आ गया है कि इस परिस्थिति के कारणों का गंभीरतापूर्वक विश्लेषण किया जाए।देश की वर्तमान स्थिति को ध्यान में रखते हुए प्रबुद्ध वर्ग के लोग संविधान में संशोधन का सुझाव देते हैं। ऐसे लोग प्रचलित व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की सिफारिश करते हैं। उनके अनुसार देश में फेडरल प्रणाली का लोकतंत्र बहाल किया जाना चाहिए। उनके अनुसार अमेरिका में फेडरल प्रणाली लागू है और इस प्रणाली का सर्वेसर्वा राष्ट्रपति होता है। उसी तरह भारत में भी नई प्रणाली को लागू करने से बेहतर नतीजे सामने आएंगे।

कुछ राज्यों के आकार बड़े और कुछ राज्यों के आकार छोटे बनाए गए

स्वतंत्रता के बाद जिस तरह राज्यों  का बंटवारा हुआ, उसकी वजह से भी लोकतंत्र की मूलभावना को क्षति पहुंची। कुछ राज्यों के आकार बड़े और कुछ राज्यों के आकार छोटे बनाए गए। इस तरह बड़े राज्यों का राजनीति पर नियंत्रण बना रहा। वहीं छोटे राज्य स्वयं को उपेक्षित अनुभव करते रहे। जिन राज्यों में लोकसभा की सीटें ज्यादा हैं, उन राज्यों के प्रति राजनेताओं का विशेष ध्यान रहा।यदि इसी तरह जनभावनाओं की उपेक्षा होती रही तो लोकतंत्र के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। उचित समय पर देश के जागरूक लोगों को पहल करने की जरूरत है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ अखबार को भी ऐसी घड़ी में निष्पक्ष एवं निर्भीक भूमिका का निर्वाह करना चाहिए, ताकि जनभावनाओं को प्राथमिकता मिल सके और लोकतंत्र सच्चे अर्थों में लोक क्रांति बन सके।

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